कपड़ा उद्योग पर मंडराता संकट- भाग 1

 

 

कपड़ा उद्योग पर मंडराता संकट- भाग 1

परंजॉय गुहा ठाकुरता और आयुष जोशी

December 22, 2025

कपड़ा उद्योग पर मंडराता संकट- भाग 1

1 पॉलिस्टर पावर प्ले

मोनो एथिलीन ग्लाइकोल (MEG) को लेकर इस समय एक बड़ी खींचतान जारी है। यह भारत की मैन–मेड फाइबर इंडस्ट्री के लिए अहम कच्चा माल है और मौजूदा हालात देश के टेक्सटाइल सेक्टर की नींव को हिलाने की हालत में पहुंच गए हैं। MEG की घरेलू मांग और आपूर्ति के बीच लगभग 40 प्रतिशत का भारी अंतर है, और सरकार की एक प्रस्तावित नीति इस संकट को और गहरा करने की आशंका पैदा करती है। इस नीति से जहां रिलायंस इंडस्ट्रीज और इंडियन ऑयल कॉर्पोरेशन जैसी बड़ी कंपनियों को फायदा मिल सकता है, वहीं हजारों छोटे निर्माता और उन पर निर्भर करोड़ों लोगों की रोज़ी–रोटी गंभीर खतरे में पड़ सकती है।

 

Source: New Delhi Post

भारतीय उद्योग के विशाल, फैले हुए और विविधतापूर्ण ढांचे में टेक्सटाइल सेक्टर जितना जरूरी और उतना ही असुरक्षित दूसरा कोई क्षेत्र नहीं दिखता। यह वह क्षेत्र है जो देश को कपड़े उपलब्ध कराता है, करोड़ों लोगों को रोजगार देता है और निर्यात के मोर्चे पर भी एक महत्वपूर्ण स्तंभ माना जाता है। यह कृषि के बाद भारत का दूसरा सबसे बड़ा रोज़गार देने वाला सेक्टर है। इसी चहल–पहल से भरे औद्योगिक क्षेत्र के भीतर इस समय एक तेज और ऊँचे दांव वाली जंग चल रही है—हज़ारों छोटे निर्माताओं और एक ताकतवर कॉरपोरेट समूह के बीच अस्तित्व की जंग। इस मोर्चे पर सबसे आगे है रिलायंस इंडस्ट्रीज लिमिटेड (RIL), जो मुकेश धीरूभाई अंबानी की अगुवाई में देश की सबसे बड़ी निजी कंपनी है। इसके साथ इंडियन ऑयल कॉरपोरेशन (IOC), जो देश की प्रमुख सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनियों में गिनी जाती है, और भारतीय समूह की कंपनी इंडिया ग्लाइकोल्स लिमिटेड (IGL) भी शामिल हैं।

यह टकराव मोनो एथिलीन ग्लाइकोल (MEG) नाम के एक रंगहीन, गंधरहित और गाढ़े द्रव के इर्द–गिर्द घूमता है। आम आदमी के लिए MEG शायद सिर्फ रसायन विज्ञान की किताबों में लिखा कोई तकनीकी शब्द भर हो, लेकिन भारतीय टेक्सटाइल उद्योग के लिए यह पॉलिएस्टर वैल्यू चेन की धुरी है ऐसा कच्चा माल, जिसके बिना स्पिंडल घूमना रुक जाते हैं और करघों पर बुनाई थम जाती है। ऐसे में सवाल उठता है कि भारतीय अर्थव्यवस्था के इस अहम हिस्से का भविष्य और उसकी किस्मत, जो करोड़ों लोगों की आजीविका से जुड़ा है, क्या कुछ चुनिंदा बड़ी कंपनियों—खासकर RIL और IOC—के हाथों में सिमट जानी चाहिए? इसका जवाब स्पष्ट रूप से “नहीं” है।

 

DGTR क्या करने की कोशिश कर रहा है

यह रिपोर्ट मोनो एथिलीन ग्लाइकोल (MEG) के आयात पर एंटी–डंपिंग ड्यूटी (ADD) लगाने के संबंध में डायरेक्टोरेट जनरल ऑफ ट्रेड रेमेडीज़ (DGTR) की हाल की सिफारिश का विश्लेषण करती है। DGTR, केंद्रीय वाणिज्य और उद्योग मंत्रालय के अधीन कार्य करने वाली इकाई है और एक “सिंगल विंडो” व्यवस्था के तहत एंटी–डंपिंग ड्यूटी (ADD), काउंटरवेलिंग ड्यूटी (CVD), सेफगार्ड ड्यूटी (SGD) और क्वांटिटेटिव रिस्ट्रिक्शन्स (QRs) जैसे विभिन्न “ट्रेड रेमेडियल” उपायों को संभालती है। एक अर्ध–न्यायिक संस्था के रूप में यह निकाय, वित्त मंत्रालय को अपनी सिफारिशें भेजने से पहले स्वतंत्र रूप से जांच–पड़ताल करता है।

डायरेक्टोरेट का दायित्व यह भी है कि वह घरेलू उद्योग को अनुचित व्यापारिक तरीकों जैसे कि डंपिंग या निर्यातक देशों द्वारा दी जाने वाली अनुचित सब्सिडी से होने वाले नुकसान से बचाने के लिए समान अवसर सुनिश्चित करे। यह संस्था विश्व व्यापार संगठन (WTO) के नियमों, भारतीय कानूनों और प्रासंगिक अंतरराष्ट्रीय समझौतों के तहत निर्धारित व्यापार–सुधार उपायों के जरिये ऐसा करने की कोशिश करती है। DGTR से यह भी अपेक्षा की जाती है कि वह पारदर्शिता के साथ और तय समय–सीमाओं के भीतर काम करे। इसके कार्यक्षेत्र में यह जिम्मेदारी भी शामिल है कि जब भारतीय कंपनियां—जिनमें निर्यातक भी आते हैं—दूसरे देशों द्वारा शुरू की गई ट्रेड–रेमेडी जांचों का सामना कर रही हों, तब उन्हें जरूरी सहयोग प्रदान किया जाए

 

भारत का टेक्सटाइल इंजन

आर्थिक व्यवस्था की रीढ़

भारत की जीडीपी का 2.3%

कुल औद्योगिक उत्पादन का 13%

राष्ट्रीय निर्यात का 12%

एक्सपोर्ट स्टोरी (वित्तीय वर्ष 2024)

परिधान (Apparel) 42%

कच्चा और अर्ध-तैयार माल 34%

तैयार गैर-परिधान वस्तु 30%

कुल निर्यात US$ 34.4 billion

रोजगार सृजनकर्ता

सीधे तौर पर नियोजित लोग 4.5 Cr

अप्रत्यक्ष रूप से अधिक कार्यरत 1.5 Cr

एमएसएमई मुख्य केंद्र में

देश भर में MSME क्लस्टर्स में मौजूद विनिर्माण क्षमता का 80%

 

यह सरकारी संस्था DGTR कितनी प्रभावी रही है और राजनीतिक रूप से ताकतवर लॉबियों के दबाव के प्रति कितनी संवेदनशील है, यह बात आगे की कहानी पढ़ते हुए धीरे–धीरे स्पष्ट होती जाती है। यह लेख 2024 और 2025 के दौरान हुए आंतरिक आधिकारिक संवाद, उद्योग संगठनों के ज्ञापन, कानूनी याचिकाओं और बारीक दामों के आंकड़ों के गहन अध्ययन के आधार पर तैयार किया गया है। जो कहानी यहां सामने रखी जा रही है, वह नियामकीय हेरफेर के एक चिंताजनक और व्यवस्थित पैटर्न को उजागर करती है। पेश किए गए सबूतों से यह संकेत मिलता है कि भारतीय राज्य की मशीनरी का इस्तेमाल देश की सबसे बड़ी MEG निर्माता कंपनी RIL को लाभ पहुँचाने के लिए किया जा रहा है, जबकि इसकी मार माइक्रो, स्मॉल और मीडियम एंटरप्राइज़ (MSME) पर पड़ रही है।

DGTR की 23 सितंबर 2025 की अंतिम रिपोर्ट, जिसमें कुवैत, सऊदी अरब और सिंगापुर जैसे रणनीतिक साझेदार देशों से MEG के आयात पर प्रति मीट्रिक टन 103 से 137 अमेरिकी डॉलर तक की “दंडात्मक” कस्टम ड्यूटी लगाने की सिफारिश की गई है, ने उद्योग जगत में जोरदार विरोध की लहर पैदा कर दी है। पॉलिएस्टर टेक्सटाइल अपैरल इंडस्ट्री एसोसिएशन (PTAIA) सहित पंद्रह से अधिक उद्योग संगठनों का कहना है कि यह कदम सिर्फ एक सामान्य ट्रेड उपाय नहीं, बल्कि पॉलिएस्टर फाइबर और कपड़े के डाउनस्ट्रीम निर्माताओं के लिए “मौत का फरमान” साबित होगा। उनके अनुसार, ये ड्यूटी हाल ही में गुड्स एंड सर्विसेज टैक्स (GST) व्यवस्था के तहत दिए गए लाभों को निष्प्रभावी कर देंगी, सरकार की प्रोडक्शन लिंक्ड इंसेंटिव (PLI) योजना को पटरी से उतार देंगी और 20,000 करोड़ रुपये से अधिक के प्रस्तावित निवेश को जोखिम में डाल देंगी।

यह रिपोर्ट घरेलू कंपनियों द्वारा किए जा रहे “नुकसान” के दावों, सरकार के निर्यात लक्ष्यों और संरक्षणवादी व्यापार अवरोधों के बीच दिखने वाले साफ विरोधाभास, प्रमुख ऊर्जा साझेदार देशों पर टैक्स लगाने के भू–राजनीतिक नतीजों और कॉरपोरेट एकाधिकार की मानवीय कीमत का विश्लेषण करती है। यह इन ड्यूटीज़ के ऐतिहासिक संदर्भ तक जाती है, 1980 के दशक के “पॉलिएस्टर प्रिंस” प्रकरण को याद करती है और दिखाती है कि संरक्षणवाद की रणनीति समय के साथ भले ही रूप बदलती रही हो, पर उसकी मूल सोच आज भी लगभग वैसी ही बनी हुई है।

 

तिरुप्पुर से आया SOS

17 नवंबर 2025 को एक ईमेल थ्रेड सर्कुलेट होना शुरू हुआ, जिसने भारतीय टेक्सटाइल निर्माण इकाइयों के एक बड़े हिस्से में फैले भय और असुरक्षा को खुलकर सामने ला दिया। ईमेल की सब्जेक्ट लाइन विशुद्ध नौकरशाही अंदाज़ में थी: “Fwd: Request for your kind support & recommendation to the Ministry of Finance not to approve DGTR’s Final Findings dated 23/09/2025” (वित्त मंत्रालय से DGTR की 23/09/2025 की अंतिम रिपोर्ट को मंजूरी न देने के लिए आपके समर्थन और सिफारिश का अनुरोध)।

इस ईमेल की सामग्री किसी साधारण पत्राचार के बजाय अस्तित्व के संकट की चेतावनी जैसी थी। इसमें PTAIA के प्रतिनिधि की ओर से बेहद व्याकुल भाव से मदद की गुहार लगाई गई थी। यह संवाद कोई सामान्य लॉबिंग नहीं, बल्कि एक ऐसे नौकरशाही फैसले को रोकने की हड़बड़ी भरी कोशिश थी, जो 3,500 से अधिक उत्पादन इकाइयों वाले पूरे उद्योग के लिए खतरा बन चुका था, जिनमें अधिकांश इकाइयाँ MSME हैं। इस सेक्टर की संरचना का विस्तृत ब्यौरा 11 नवंबर 2025 को केंद्रीय राजस्व सचिव अरविंद श्रीवास्तव को भेजे गए एक पत्र में दिया गया है, जिसकी प्रति लेखकों के पास मौजूद है।

 

पॉलिस्टर इकोसिस्टम: डाउनस्ट्रीम मैप

पीईटी चिप विनिर्माण

पॉली-एथिलीन टेरेफ्थेलेट (पीईटी) चिप्स इकाइयां 6

धागा निर्माण

POY/FDY (आंशिक रूप से उन्मुख धागा/पूरी तरह से खींचा गया धागा) इकाइयां 22

FDY/IDR (फुली ड्रॉन यार्न / इंडस्ट्रियल यार्न) इकाइयां 21  

डीटीवाई (ड्रॉन टेक्स्चराइज़्ड यार्न) इकाइयां 275

वस्त्र एवं निर्माण

कताई मिलें 1,823

लूम 1,400

कुल पॉलिस्टर डाउनस्ट्रीम इकाइयां 3,547

परिधान उद्योग का प्रभाव क्षेत्र  

परिधान निर्माता 2,700

फैब्रिकेटर 4,800

रोजगार पर प्रभाव

पूरा MMF वैल्यू चेन (PET चिप्स, गारमेंट्स) 6 करोड़ नौकरियों को सपोर्ट करता है

इसमें कताई करने वाले, बुनाई करने वाले, फैब्रिकेटर, धागा प्रोसेस करने वाले, कपड़े बनाने वाले शामिल हैं।

 

स्रोत: पॉलिस्टर टेक्सटाइल अपैरल इंडस्ट्री एसोसिएशन (PTAIA)

इस चिट्ठी में 23 अक्टूबर 2025 की एक और पत्र का उल्लेख किया गया था, जो केंद्रीय वित्त मंत्रालय को भेजा गया था। उस पत्र में सरकार से निवेदन किया गया था कि वह DGTR (F. No. 6/34/2024-DGTR) की उन सिफारिशों को मंज़ूर न करे, जिनमें MEG पर भारी एंटी-डंपिंग ड्यूटी (ADD) लगाने की बात कही गई है। यह अपील किस समय की गई, यह भी अत्यंत महत्वपूर्ण है।

भारत की टेक्सटाइल इंडस्ट्री कुछ मुट्ठीभर बड़ी कंपनियों तक सीमित नहीं है; यह पावर लूम मालिकों, स्पिनरों, निटिंग यूनिटों और परिधान बनाने वाले कारखानों का एक बिखरा हुआ, अव्यवस्थित, लेकिन बेहद जीवंत ताना-बाना है। ये इकाइयाँ देशभर के औद्योगिक केंद्रों—खासकर सूरत (गुजरात), लुधियाना (पंजाब), तिरुप्पुर और इरोड (दोनों तमिलनाडु) में फैली हुई हैं। इन यूनिटों के पास न तो बहुत गहरे वित्तीय स्रोत हैं और न ही मज़बूत बैलेंस शीट; वे अक्सर 7–8 प्रतिशत जैसे बेहद कम मुनाफे के मार्जिन पर काम चलाती हैं। इन MSME इकाइयों के लिए कच्चे माल की लागत सिर्फ किसी स्प्रेडशीट पर एक संख्या भर नहीं है, बल्कि उनके अस्तित्व का मूल आधार है।

 

रासायनिक प्रक्रिया की लागत

मानव-निर्मित फाइबर (MMF), टेक्सटाइल और परिधान क्षेत्र में फैली घबराहट की तीव्रता को समझने के लिए पहले उस रसायन विज्ञान को समझना ज़रूरी है, जो “आधुनिक फैशन” की बुनियाद में है। पॉलिएस्टर वह फ़ाइबर है जो आज दुनिया के बड़े हिस्से को कपड़े पहनाता है—एथलीटों के हाई-परफॉर्मेंस स्पोर्ट्सवियर से लेकर आम नागरिक के सस्ते दैनिक पहनावे तक—और यह एक विशिष्ट रासायनिक अभिक्रिया से बनने वाला पॉलीमर है। यह प्यूरिफाइड टेरेफ्थैलिक एसिड (PTA) और MEG को आपस में अभिक्रिया कराकर तैयार किया जाता है।

इस संबंध की स्टॉइकियोमेट्री—यानी किसी रासायनिक अभिक्रिया में अभिकारकों और उत्पादों के बीच मात्रात्मक रिश्तों का विज्ञान—काफी कठोर है। पॉलिएस्टर तैयार करने के लिए वजन के हिसाब से लगभग 70 प्रतिशत PTA और 30 प्रतिशत MEG की जरूरत होती है। 2020 में खत्म हुई पिछली नियामकीय लड़ाइयों के बाद PTA की आपूर्ति और कीमतें भले ही स्थिर हो गई हों, लेकिन अब MEG इस संघर्ष का नया रणक्षेत्र बनकर सामने आया है; उत्पादन समीकरण में यही सबसे अधिक अस्थिर चर साबित हो रहा है।​

भारतीय टेक्सटाइल इंडस्ट्री इस रसायन की जबरदस्त उपभोक्ता है। PTAIA द्वारा उपलब्ध कराए गए आँकड़ों के अनुसार, यह इंडस्ट्री हर साल लगभग 31 लाख मीट्रिक टन (MT) MEG का इस्तेमाल करती है। इसके विपरीत, घरेलू उत्पादन क्षमता एक गंभीर कमी की कहानी बयान करती है; देश में निर्माता सालाना केवल 19.41 लाख MT MEG बना पाते हैं, जिससे 11.59 लाख MT का एक बड़ा, संरचनात्मक घाटा पैदा होता है यानी करीब 40 प्रतिशत की कमी, जिसे केवल आयात के ज़रिये ही पाटा जा सकता है।

यह कमी किसी अस्थायी उतार-चढ़ाव का नतीजा नहीं, बल्कि भारतीय पेट्रोकेमिकल परिदृश्य की एक पुरानी, जड़ जमा चुकी वास्तविकता है। डाउनस्ट्रीम उद्योग विदेशी कच्चे माल को किसी विशेष पसंद की वजह से नहीं, बल्कि मजबूरी में आयात करता है; अगर ये आयात बंद हो जाएँ, तो कारखानों के पास काम चलाने लायक कच्चा माल ही नहीं बचेगा।

 

निकट भविष्य का झटका

DGTR की ओर से बड़े सप्लायरों—कुवैत की इक्वेट, सऊदी अरब की सबिक और सिंगापुर स्थित कई कंपनियों—से होने वाले MEG आयात पर एंटी-डंपिंग ड्यूटी लगाने की पहल पहले से ही नाज़ुक बने संतुलन को और बिगाड़ने की आशंका पैदा करती है। प्रस्तावित ड्यूटी की मात्रा भी काफी ऊँची है: इक्वेट (कुवैत) पर 103 डॉलर प्रति MT, सबिक (सऊदी अरब) पर 113 डॉलर प्रति MT और सिंगापुर की कंपनियों पर 137 डॉलर प्रति MT​

भारतीय मुद्रा में इसका सीधा अर्थ यह है कि लागत में लगभग 9 से 12 रुपये प्रति किलोग्राम की बढ़ोतरी हो जाएगी। लुधियाना के एक छोटे, स्वतंत्र स्पिनर के लिए—जो कपड़े के प्रति मीटर पर बेहद पतले मुनाफे के साथ काम करता है—कच्चे माल की लागत में अचानक 12 रुपये प्रति किलो या लगभग 20 प्रतिशत की छलाँग, पहले से ही कड़े प्रतिस्पर्धी बाज़ार में उसके टिके रहने के लिए विनाशकारी साबित होती है।​

ऐसे सेक्टर में, जहाँ वियतनाम, बांग्लादेश और चीन जैसे देशों के टेक्सटाइल और परिधान निर्माताओं से अंतरराष्ट्रीय स्तर पर तीखा मुकाबला है, खरीदार केवल कुछ अमेरिकी सेंट के अंतर के लिए भी सप्लायर बदल देने में देर नहीं लगाते। ऐसे में लागत में 20 प्रतिशत की बढ़ोतरी कोई साधारण समायोजन नहीं, बल्कि कई इकाइयों के लिए मौत के बराबर झटका है। PTAIA द्वारा वित्त मंत्रालय को भेजे गए पत्र में साफ चेतावनी दी गई है कि “कच्चे माल की लागत में बढ़ोतरी उद्योग को प्लांट बंद करने पर मजबूर कर देगी” और भविष्य में उत्पादन क्षमता में किसी तरह का विस्तार संभव नहीं रह जाएगा। MEG पर प्रस्तावित शुल्क की असली मानवीय कीमत बंद होते कारखानों, थमे हुए करघों और हजारों मज़दूरों की उजड़ती ज़िंदगियों के रूप में सामने आएगी।

 

डेविड बनाम गोलियथ

Source: New Delhi Post

यह समझने के लिए कि इतनी भारी और नुकसानदेह एंटी-डंपिंग ड्यूटी पर विचार क्यों किया जा रहा है, ज़रूरी है कि थोड़ा और गहराई में देखा जाए और यह पहचाना जाए कि इस प्रस्ताव से लाभ किसे होगा। भारत में MEG का घरेलू उत्पादन एक तरह की ओलिगोपॉली—यानि सीमित प्रतिस्पर्धा वाली बाज़ार संरचना—के अधीन है, जिसमें कुछ ही शक्तिशाली कंपनियों का दबदबा है। देश में MEG बनाने वाले असल में सिर्फ तीन बड़े निर्माता हैं: रिलायंस इंडस्ट्रीज लिमिटेड, इंडियन ऑयल कॉर्पोरेशन लिमिटेड और इंडिया ग्लाइकोल्स लिमिटेड।

इन तीनों में RIL निर्विवाद रूप से सबसे प्रभावशाली खिलाड़ी है। यह केवल सबसे बड़ा प्रोड्यूसर ही नहीं, बल्कि पूरी पेट्रोकेमिकल वैल्यू चेन पर हावी एक ऐसा विशाल समूह है, जो कच्चे तेल की रिफाइनिंग और नैफ्था क्रैकिंग से लेकर एथिलीन उत्पादन, MEG निर्माण और अंततः पॉलिएस्टर फाइबर व कपड़े के उत्पादन तक हर चरण पर नियंत्रण रखता है।

भारतीय पेट्रोकेमिकल बाज़ार में विकृति की सबसे बड़ी वजह “कैप्टिव कंजम्प्शन” या आंतरिक खपत है। RIL की विशिष्टता यह है कि वह भारत में MEG की सबसे बड़ी निर्माता होने के साथ-साथ इसकी सबसे बड़ी उपभोक्ताओं में भी शामिल है; कंपनी अपने डाउनस्ट्रीम पॉलिएस्टर उत्पाद बनाने के लिए अपने ही MEG उत्पादन का लगभग 60 प्रतिशत हिस्सा अंदर ही इस्तेमाल कर लेती है।

कच्चे माल का यह आंतरिक हस्तांतरण जिन कीमतों पर होता है, वे बाहर की दुनिया के लिए पारदर्शी नहीं हैं और यही बात RIL को संरचनात्मक रूप से बड़ा लाभ देती है। जब RIL “डंपिंग” से बचाव के लिए सरकारी सुरक्षा मांगती है, तो उसका दावा होता है कि सस्ते आयात घरेलू उद्योग को चोट पहुँचा रहे हैं।

डंपिंग की स्थिति तब मानी जाती है जब कोई कंपनी किसी उत्पाद को उसकी घरेलू कीमत से कम पर या फिर उत्पादन लागत से भी नीचे के स्तर पर विदेश भेजती है। ऐसी व्यापारिक प्रैक्टिस को अनुचित माना जाता है, क्योंकि इससे आयात करने वाले देश के उत्पादकों की प्रतिस्पर्धा की क्षमता कमजोर पड़ जाती है और नौकरियाँ ख़तरे में आ सकती हैं; इसीलिए दुनिया भर में सरकारें स्थानीय उद्योग और कामगारों की सुरक्षा के लिए टैरिफ और कोटा जैसे उपाय अपनाती हैं।

लेकिन भारत में RIL के मामले को देखें, तो जिस “नुकसान” की शिकायत की जा रही है, वह काफी हद तक काग़ज़ी या सैद्धांतिक हो सकता है, क्योंकि कंपनी अपनी कुल MEG उत्पादन का लगभग 60 प्रतिशत हिस्सा तो स्वयं ही खपत कर लेती है। असल चोट ऊँची घरेलू कीमतों की मार झेल रहे RIL के प्रतिस्पर्धी डाउनस्ट्रीम टेक्सटाइल निर्माताओं पर पड़ती है यानी वे स्वतंत्र स्पिनर और बुनकर, जिनके पास अपने पेट्रोकेमिकल प्लांट नहीं हैं और जिन्हें खुली बाज़ार कीमतों पर MEG खरीदना पड़ता है। अगर सरकार ADD लागू करती है, तो खुले बाज़ार में MEG की कीमत आयात की लैंडेड कॉस्ट और कस्टम ड्यूटी जोड़कर तय होगी। ऐसे में RIL, तीसरे पक्ष को MEG बेचने वाले सप्लायर के रूप में, ऊँची कीमतों से भारी मुनाफा कमाएगी, जबकि उसकी अंदरूनी डाउनस्ट्रीम इकाइयाँ लागत के करीब कीमत पर ही कच्चा माल हासिल कर पाएँगी। 

यह तरह-तरह से किया गया नियामकीय हस्तक्षेप एक दोधारी तलवार की तरह काम करता है, जो बाज़ार में प्रतिस्पर्धा को कमज़ोर कर देता है। यह इंटीग्रेटेड दिग्गज कंपनी के लिए एक प्रकार की अप्रत्यक्ष सब्सिडी बन जाता है, क्योंकि वह टैरिफ से सुरक्षित अपस्ट्रीम बिक्री से होने वाले मुनाफे से अपने डाउनस्ट्रीम कारोबार को सस्ता रख सकती है, जबकि उसके छोटे प्रतिद्वंद्वी ऊँची लागत के बोझ तले गैर-प्रतिस्पर्धी बनते जाते हैं। ऐसे में स्वाभाविक सवाल उठता है कि RIL एंटी-डंपिंग ड्यूटी के लिए इतनी सक्रिय लॉबिंग क्यों कर रही है।

 

“पॉलिएस्टर प्रिंस” की वापसी

मुकेश अंबानी की अगुवाई में अपनाई जा रही यह रणनीति न तो पूरी तरह नई है और न ही बहुत अनोखी; बल्कि यह अतीत के एक पुराने अध्याय की फिर से याद दिलाती है। मशहूर “पॉलिएस्टर प्रिंस” प्रकरण, दिवंगत धीरजलाल हीराचंद (धीरूभाई) अंबानी द्वारा खड़ा किए गए कॉर्पोरेट साम्राज्य के तेज़ उभार से जुड़ा है, जिसे ऐसे अनुकूल टैरिफ ढाँचों ने हवा दी, जो रिलायंस के घरेलू उत्पादन की रक्षा करते हुए आयात को महँगा बनाते थे।

1980 के दशक में कॉर्पोरेट भारत ने धीरूभाई अंबानी और बॉम्बे डाइंग के मुखिया नुस्ली वाडिया—जो सिंथेटिक टेक्सटाइल के एक बड़े प्रतिद्वंद्वी निर्माता थे के बीच ज़बरदस्त टकराव देखा। ऑस्ट्रेलियाई पत्रकार हैमिश मैकडॉनल्ड की जीवनी “द पॉलिस्टर प्रिंस”, जो जनवरी 1997 में प्रकाशित हुई, में इन दो दिग्गजों के बीच चले संघर्ष का विस्तार से वर्णन मिलता है। कानूनी विवादों के चलते यह किताब भारत में करीब 13 साल तक उपलब्ध नहीं रही और बाद में 2010 में एक अपडेटेड रूप में “अंबानी एंड संस” (भारतीय संस्करण) और “महाभारत इन पॉलिस्टर” (अंतरराष्ट्रीय संस्करण) के नाम से आई। इस किताब में यह भी विस्तार से बताया गया कि कैसे सरकार ने पॉलिएस्टर फाइबर बनाने में इस्तेमाल होने वाले कच्चे माल के आयात नियमों में बदलाव कर रिलायंस को फ़ायदा पहुँचाया और उसके प्रतिस्पर्धियों को नुकसान में धकेल दिया।​

यह कहानी अलग-अलग रूपों में बार-बार दोहराई जाती दिखती है। सितंबर 2014 में इकोनॉमिक एंड पॉलिटिकल वीकली में प्रकाशित एक लेख “Polyester Prince 3.0: Close Encounters of the Third Kind” में, इसी रिपोर्ट के सह-लेखक परंजय गुहा ठाकुरता ने विस्तार से बताया था कि लगभग यही परिदृश्य 2014 में PTA को लेकर भी देखने को मिला था। उस समय PTA, जो पॉलिएस्टर बनाने का दूसरा अहम इनपुट है, पर एंटी-डंपिंग ड्यूटी लगाने को लेकर जबरदस्त संघर्ष हुआ; कड़ा विरोध होने के बावजूद सरकार ने PTA पर ADD लगा दी, जिसका असर वर्षों तक ऊँची लागत के रूप में पूरी इंडस्ट्री को भुगतना पड़ा। अंततः 2020 के केंद्रीय बजट में वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने “जनहित” का हवाला देते हुए PTA पर लगी इन ड्यूटीज़ को वापस ले लिया और स्वीकार किया कि प्रतिस्पर्धी दामों पर कच्चे माल की उपलब्धता बेहद ज़रूरी है।

2020 के बाद संघर्ष का फोकस PTA से हटकर MEG पर आ गया। रसायन बदला, लेकिन नीति-पुस्तिका वही रही—WTO फ्रेमवर्क के “घरेलू उद्योग को चोट” वाले प्रावधान का सहारा लेकर सुरक्षात्मक टैरिफ हासिल करना, ताकि गैर-इंटीग्रेटेड प्रतिद्वंद्वियों के मुनाफे पर दबाव बढ़े और बाज़ार पर नियंत्रण मजबूत हो सके।

 

“जानबूझकर पैदा की गई महंगाई”

किसी भी एंटी-डंपिंग ड्यूटी को सही ठहराने की कानूनी और आर्थिक बुनियाद यह मानी जाती है कि विदेशी आपूर्तिकर्ता सामान्य या लागत-आधारित कीमतों से नीचे जाकर सामान बेच रहे हैं और इससे घरेलू निर्माताओं को वास्तविक चोट पहुँच रही है। लेकिन उपलब्ध आँकड़े बताते हैं कि भारत की आयात पर निर्भरता किसी आक्रामक “प्राइस प्रिडेशन” की वजह से नहीं, बल्कि घरेलू क्षमता की कमी से पैदा हुई मजबूरी है।​

लगभग 1.2 मिलियन टन के स्थायी मांग-आपूर्ति अंतर के साथ, MEG के भारतीय निर्माता देश की कुल जरूरत का उत्पादन कर ही नहीं सकते; ऐसे में टेक्सटाइल और परिधान उद्योग की चक्की चलाए रखने के लिए आयात अनिवार्य हो जाता है। PTAIA, CITI और टेक्सटाइल-गारमेंट उद्योग के हितों का प्रतिनिधित्व करने वाले दर्जनों संगठनों की राय भी broadly यही है कि MEG के आयात पर टैक्स लगाकर सरकार वास्तव में उस घरेलू पेट्रोकेमिकल इंडस्ट्री की “रक्षा” नहीं कर रही, जो पहले ही अपनी पूरी क्षमता का इस्तेमाल कर रही है; बल्कि वह कमी पर टैक्स लगा रही है। इसका परिणाम “जानबूझकर पैदा की गई महंगाई” के रूप में सामने आता है, जिसका वास्तविक फायदा सिर्फ RIL, IOC और IGL जैसे कुछ बड़े उत्पादकों के मुनाफे बढ़ने तक सीमित रहता है।

दूसरे शब्दों में, अतीत के फैसले और अब DGTR द्वारा प्रस्तावित एंटी-डंपिंग ड्यूटी आम उपभोक्ताओं—जो MMF आधारित कपड़े और परिधान खरीदते हैं—और डाउनस्ट्रीम उद्योग की कीमत पर कुछ गिने-चुने कॉरपोरेट समूहों के हितों को साधने का काम करते हैं।​

MEG डिमांड-सप्लाई में बेमेल (2025-26 के लिए अनुमानित)

(संस्थापित क्षमता) Installed Capacity 26.04 lakh MT

वास्तविक उत्पादन (Actual Production) 19.41 lakh MT

कुल खपत (मांग) Total Consumption (Demand)   31.00 lakh MT

कमी/आयात की आवश्यकता 11.59 lakh MT

 

आयुष जोशी और परंजय गुहा ठाकुरता स्वतंत्र पत्रकार हैं।

अंग्रेजी से हिंदी में अनुवाद एम.ओबैद ने किया।

यह दो भागों की श्रृंखला का पहला भाग है।

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Tags:#trending Reliance Textile industry job loss in India Textile policy

About Author

परंजॉय गुहा ठाकुरता और आयुष जोशी

परंजय गुहा ठाकुरता और आयुष जोशी स्वतंत्र पत्रकार हैं। आयुष भारत में रहने वाले एक खोजी पत्रकार और शोधकर्ता हैं, जो गहन जांच और आकर्षक कथा लेखन के संयोजन में विशेषज्ञता रखते हैं। उनका काम अपनी गहराई, स्पष्टता और अनकही सच्चाइयों को उजागर करने की प्रतिबद्धता के लिए जाना जाता है। परनजॉय गुहा ठाकुरता एक राजनीतिक अर्थशास्त्री, अर्थशास्त्री और सामाजिक कार्यकर्ता हैं .

 

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