माहौल ऐसे ही रहा तो विकास का क्या होगा?

अपने पुरस्कार लौटाने का लेखकों, अकादमिशियनों, फ़िल्म निर्माताओं, सामाजिक कार्यकर्ताओं और वैज्ञानिकों के सामूहिक फैसले को भले ही बीजेपी और संघ की ओर से ‘राजनीति से प्रेरित’ और ‘बौद्धिक असहिष्णुता’ कह कर खारिज किया जाय लेकिन ये विरोध अब अलग रुख अख़्तियार करने लगे हैं और सरकार को उसके मर्म पर चोट कर रहे हैं जहां उसे दर्द होता है.

और यह दर्द वाकई बहुत तीखा है, यानी अर्थव्यवस्था पर चोट.

सबसे बुरी बात तो ये है कि अग्रणी कार्पोरेट बिजनेसमैन सार्वजनिक रूप से सरकार की लानत मलानत कर रहे हैं, लेकिन आर्थिक सुधारों को तेजी से आगे बढ़ाने में सरकार की अक्षमता के लिए नहीं, बल्कि बहुसंख्यकवादी ताक़तों के सामने इसके निरीह तरीक़े से घुटने टेक देने के लिए.

जो लोग चिंतित हैं कि सत्तारूढ़ सरकार भारतीय समाज के समावेशी और सहिष्णु होने को सुनिश्चित करने के प्रति पूरी तरह अनिच्छुक लग रही है, वे सभी कांग्रेसी समर्थक नहीं हैं, जैसा कि दावा किया जा रहा है.

न ही ये असंतोष हिंदुओं के ख़िलाफ़ पूर्व नियोजित साजिश है, जैसा कि आरएसएस जताती है.

अपर्याप्त और ‘सुधारों’ की धीमी रफ़्तार को लेकर कुछ समय पहले तक जिस चीज को छिटपुट और बड़बड़ाहट कहकर ख़ारिज़ किया जा सकता था अब वो आलोचनाओं की असली बौछार बन चुका है.

जिन उद्योगपतियों ने मोदी के प्रधानमंत्री बनने का दिल से स्वागत किया था उनमें से कुछ ने शुरुआत में ही श्रम क़ानूनों को बदलने में, ब्याज़ दरों में कटौती और विशेषकर नौजवानों के रोज़गार के लिए मैन्यूफ़ैक्चरिंग में निवेश आकर्षित करने में सरकार की धीमी रफ़्तार की शिकायत की थी,

यह मोहभंग 2015 के पहले आठ महीने में और तेजी से बढ़ा है क्योंकि 2013 के भूमि अधिग्रहण क़ानून को सरकार ने विपक्षी पार्टियों के बीच राजनीतिक सहमति बनाने की बजाय विधेयक लाकर बदलने की कोशिश की और असफल हो गई.

यह मोहभंग धीरे-धीरे कर्कश शिकायतों में बदल गया. यहां तक कि सत्ताधारियों के सामने हमेशा दंडवत रहने वाले उद्योगपति भी सवाल पूछ रहे हैं. बीजेपी से जुड़े मंत्री और सांसद समेत जो लोग मुस्लिमों के ख़िलाफ़ नफ़रत फैला रहे हैं, उन्हें मोदी ने चुप नहीं कराया? दादरी घटना की निंदा करने में उन्होंने इतनी देर क्यों की और वो भी परोक्ष रूप से?

सरकार के मुखिया के रूप में अपने ‘राजधर्म’ का पालन करने के प्रति मोदी की अनिच्छा ने देश में माहौल को इतना ज़हरीला बना दिया है कि यहां तक कि बीजेपी के समर्थक भी बेचैनी महसूस कर रहे हैं.

साल 2002 में गुजरात दंगों के दौरान जब हिंदू भीड़ ने मुसलमानों का कत्लेआम शुरू किया तो तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने मोदी को ‘राजधर्म’ की याद दिलाई थी.

आज कुछ बीजेपी समर्थक भी खुले तौर पर कह रहे हैं कि मौजूदा माहौल देश में तेजी से विकास के माकूल नहीं है, रोजगार के अवसरों को तेजी से पैदा करना तो दूर की बात है.

बीते फ़रवरी में एचडीएफ़सी के मुखिया दीपक पारेख ने कहा था कि ज़मीनी स्तर पर कुछ भी नहीं बदला और उद्योग जगत के लिए अभी तक ‘अच्छे दिन’ नहीं आए.

हालांकि कुछ महीने बाद मोदी सरकार की तारीफ़ कर वो अपने बयान से पीछे हट गए. अप्रैल में उद्योगपति हरीश मारीवाला ने कहा कि अपने वादे पूरे करने में असफल होकर सरकार ने अपनी चमक खो दी है.

महाराष्ट्र सरकार ने जब बीफ़ खाने पर प्रतिबंध लगाया और सिनेमाहालों में मराठी फ़िल्में दिखाए जाने को अनिवार्य बना दिया तो हर्ष गोयनका ने इसी कड़ी में कहा, ‘अब तो बड़े हो जाओ’.

अगस्त में राज्य सभा के पूर्व सांसद और बजाज ग्रुप के मुखिया राहुल बजाज ने खुले तौर पर कहा, “सभी उद्योगपति इस बात सहमत होंगे कि भ्रष्टाचार का अभी भी बोलबाला है. पैसे मांगे जाते हैं. लेकिन कोई भी इस बारे में बोलना नहीं चाहता. वो (मोदी) 27 मई (2014) को बादशाह थे और अब देखिये, उनके और उनकी सरकार के बारे में हर कोई क्या बोल रहा है.”

30 अक्टूबर को वैश्विक क्रेडिट रेटिंग एजेंसी मूडीज़ की निवेशक सेवाओं वाली शाखा मूडीज़ एनालिटिक्स ने नरेंद्र मोदी से अपील की कि “या तो वह अपनी पार्टी के सदस्यों पर लगाम लगाएं या घरेलू और वैश्विक साख को गंवाने के लिए तैयार रहें.”

एजेंसी ने इस अपील में आगे कहा कि सरकार ने कुछ नहीं किया, विभिन्न बीजेपी सदस्यों की ओर से विवादित बयान दिए जाते रहे और विभिन्न भारतीय अल्पसंख्यकों को उकसाने की कार्रवाईयों ने जातीय तनाव पैदा किया है.

मूडीज़ ने ‘हिंसा बढ़ने की आशंका’ जताई और कहा कि ‘अगर आर्थिक नीतियों से बहस दूर जाती है तो सरकार को उच्च सदन में विपक्ष की ओर से और तीखा प्रतिरोध झेलना पड़ेगा.’

इसके एक दिन बाद ही इन्फ़ोसिस के संस्थापक एनआर नारायणमूर्ति ने कहा कि अल्पसंख्यकों के ‘ज़हन में बहुत डर’ पैठा हुआ है, जोकि आर्थिक विकास पर असर डाल रहा है. हालांकि उन्होंने ये भी कहा कि वो कोई राजनीतिक व्यक्ति नहीं हैं.

रिज़र्व बैंक ऑफ़ इंडिया के गवर्नर रघुराम राजन ने टिप्पणी की कि, 'राजनीतिक रूप से सही होने की अत्याधिक कोशिशें तरक्की में रुकावट पैदा कर रही हैं.'

उन्होंने कहा कि सहनशीलता का माहौल, अलग अलग विचारों के प्रति सम्मान और सवाल करने के अधिकार की सुरक्षा देश के विकास के लिए ज़रूरी है. उनका संदेश सबके लिए स्पष्ट था, हालांकि उन्होंने किसी व्यक्ति या राजनीतिक पार्टी का नाम नहीं लिया.

जिस चीज़ पर ध्यान देने की ज़रूरत है वह है कि जो अग्रणी कार्पोरेट शख्सियतें इन विचारों को ज़ाहिर करती रही हैं, वो मोदी, वित्त मंत्री अरुण जेटली की तरह ही मुक्त औद्योगिक पूंजीवाद की घोर समर्थक रही हैं और कहने की ज़रूरत नहीं है कि कांग्रेस का एक बहुत बड़ा तबका इसका समर्थक रहा है.

हालांकि यही लोग बीजेपी और आरएसएस के अल्पसंख्यक विरोधी असहिष्णु सामाजिक सांस्कृतिक एजेंडे को लेकर ज़्यादा बेचैन हैं.

जिस तेजी से मोदी का हनीमून पीरियड ख़त्म हुआ, उसे देखना, हममें से बहुतों के लिए, जिन्होंने कभी इस एजेंडे का समर्थन नहीं किया था, बहुत ताज्जुब वाला रहा है.

आठ नवंबर को बिहार चुनावों के जो भी नतीजे आएं, भारतीय समाज के विभिन्न तबकों में इस बात का डर बढ़ता जा रहा है कि अगर सत्तारूढ़ सरकार से जुड़े चरमपंथी हिंदुओं के समूहों को यूं ही भड़काऊ भाषण देने और हिंसक घटनाओं को करने दिया जाता रहा तो सरकार को किसी भी प्रकार से नौकरियों के अवसर पैदा करने और आर्थिक विकास के बारे में भूल जाना होगा.

और पूरी दुनिया में मोदी के दौरों का नतीजा शून्य बनकर रह जाएगा.

Featured Book: As Author
Sue the Messenger
How legal harassment by corporates is shackling reportage and undermining democracy in India
 
Featured Book: As Publisher
India's Long Walk Home
  • Authorship: Ishan Chauhan (Author), Zenaida Cubbinz (Author), Ashok Vajpeyi (Foreword)
  • Publisher: Paranjoy Guha Thakurta
  • 248 pages
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