बड़ा सवाल: बंगाल आज क्या सोचता है?

पश्चिम बंगाल में चल रहे विधानसभा चुनावों के परिणाम का असर सिर्फ इस प्रदेश की राजनीति पर नहीं पड़ने वाला है बल्कि इस पर भारत में लोकतंत्र का भविष्य निर्भर करता है। अगर बंगाल में पहली बार भारतीय जनता पार्टी सत्ता में आई तो इससे यह तय हो जाएगा कि नरेंद्र मोदी का विपक्ष मुक्त भारत बनाने का अभियान रूकने वाला नहीं है। साथ ही यह भी साबित हो जाएगा ‘चुनाव आधारित निरंकुशता’ कायम करने का उनका काम भी थमने वाला नहीं है।

अगर भाजपा को बहुमत नहीं मिलता है और इसके बावजूद भी वह सरकार बनाने में कामयाब हो जाती है तो इसे वे अपनी ‘जीत’ के तौर पर पेश करेंगे। क्या इसका मतलब यह है कि चाहे जो भी चुनावी परिणाम आएं मोदी के लिए तो हर स्थिति में जीत की ही परिस्थिति बनेगी? वास्तविकता ये नहीं है। अगर बंगाल में गैर भाजपा सरकार पूरी तरह से तृणमूल कांग्रेस की या दूसरी पार्टियों के समर्थन से बनती है तो इससे मोदी की महत्वकांक्षा को झटका लगेगा और भाजपा का विजय रथ कुछ समय के लिए थम जाएगा। दक्षिणपंथी राजनीति, हिंदू राष्ट्रवादी राजनीतिक दल और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का विरोध करने वाले लोगों के लिए यह सुखद होगा।

पिछले सात सालों में और खास तौर पर 2019 के लोकसभा चुनावों में मतदाताओं में राज्य के चुनाव में और राष्ट्रीय चुनाव में अलग-अलग ढंग से मतदान किए हैं। सेंटर फाॅर स्टडी ऑफ़ डेवलपिंग सोसाइटिज के समाज विज्ञानी अभय दुबे इस प्रवृत्ति को भारतीय राजनीति का ‘सरकारीकरण’ कहते हैं। जिसमें केंद्र और राज्य के सत्ताधारी दल फायदे की स्थिति में रहते हैं। यही वजह है कि बंगाल भाजपा के लिए इतना अहम हो गया है। इस बात को मानने की कई वजहें हैं कि बंगाल में भाजपा की स्थिति उतनी अच्छी नहीं है जितना वे प्रचारित कर रहे हैं और उनके लिए 2019 लोकसभा चुनावों के प्रदर्शन को दोहरा पाना बहुत मुश्किल होगा। 2019 में प्रदेश की 42 लोकसभा सीटों में से भाजपा को 18 सीटें मिली थीं और तकरीबन 40 प्रतिशत वोट मिले थे।

बहुत सारे ऐसे सवाल हैं जिनका जवाब तो चुनाव परिणाम आने के बाद ही मिलेगा। एक सवाल यह उठता है कि तृणमूल विरोधी वोट किधर जाएंगे? क्या यह भाजपा और वाम-कांग्रेस गठबंधन के बीच बंट जाएगा? ऐसी स्थिति में प्रदेश की सत्ताधारी पार्टी को फायदा होगा। या फिर मुसलमानों समेत दूसरे भाजपा विरोधी वोट 2019 की तरह बंट जाएंगे और भगवा पार्टी को फायदा होगा? इन सवालों को लेकर तरह-तरह की बातें की जा रही हैं और अलग-अलग सिद्धांत दिए जा रहे हैं लेकिन कोई राजनीतिक पंडित यह बताने की स्थिति में नहीं है नतीजा क्या होगा और चुनावी संघर्ष कहां करीबी है और कहां एकतरफा है।

हाल ही में मेरी कई राजनीतिक पर्यवेक्षकों से बात हुई। उनमें से तीन की बातों को संक्षेप में मैं रख रहा हूं क्योंकि उनकी कही अधिकांश बातों से मैं भी सहमत हुआ। राजनीतिक विज्ञानी सुहास पालशिकर कहते हैं कि बंगाल चुनाव इसलिए महत्वपूर्ण है कि इसके नतीजे यह तय करेंगे कि भाजपा राष्ट्रवाद के अपने संकीर्ण विचारों का प्रसार करने और ‘चुनावी तानाशाही’ को आगे बढ़ाने में कामयाब हुई है नहीं। भाजपा के हिसाब से जो भी चुने हुए नेता का विरोध करता है, वह राष्ट्र विरोधी है।

भाजपा शासन में अंग्रेजों के समय के राष्ट्रद्रोह कानून का इस्तेमाल कई गुणा बढ़ गया है। आर्टिकल 14 नाम की वेबसाइट के एक अनुमान के मुताबिक 2014 में मोदी के सत्ता में आने के बाद से 96 फीसदी राष्ट्रद्रोह के मामले उन 405 भारतीय नागरिकों के खिलाफ दर्ज किए गए जिन्होंने नेताओं और सरकार का विरोध किया। इस वेबसाइट ने 2010 से 2020 के बीच के राष्ट्रद्रोह के मामलों का अध्ययन किया है। इस अध्ययन से यह बात निकलकर आई है कि कुल लोगों में से 149 लोग ऐसे हैं जिन पर प्रधानमंत्री के खिलाफ ‘आलोचनात्मक’ या ‘अपमानजनक’ बयान देने का आरोप है। वहीं 144 लोग ऐसे हैं जिन पर उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के खिलाफ बयान देने का आरोप है।

लेखिका और पत्रकार सागरिका घोष 2021 के विधानसभा चुनाव की तुलना प्लासी के युद्ध से करती हैं। 1757 में हुई उस लड़ाई में ईस्ट इंडिया कंपनी ने राॅबर्ट क्लाइव के नेतृत्व में बंगाल के नवाब सिराज-उद-दौला की बड़ी सेना को हरा दिया था। क्लाइव सिर्फ इसलिए सफल नहीं हुआ था कि वह अच्छा सैन्य नेता था बल्कि वह अच्छा रणनीतिकार भी था। उसने नवाब के सेनापति मीर जाफर को अपने साथ मिला लिया था। भाजपा ने भी तृणमूल के सुवेंदु अधिकारी जैसे प्रमुख सेनापतियों को अपने साथ मिला लिया है। कुछ लोग ऐसे हैं जो इस तुलना को अतिरेक मानेंगे लेकिन ऐसे लोग भी इस बात से सहमत होंगे कि बंगाल चुनाव का का प्रभाव भारतीय राजनीति पर बहुत गहरा होगा और इसका असर अगले कुछ दशकों तक देखा जा सकेगा।

राजनीतिक मनोविज्ञानी आशीष नंदी कहते हैं कि इस चुनाव में पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी एक ऐसे व्यक्ति के सामने खड़ी हैं जिसके हाथ में ‘देश के 1.3 अरब लोगों की तकदीर है।’ नंदी और उनके जैसे अन्य राजनीतिक विश्लेषक भी यह बड़ा सवाल उठाते हैं कि क्या मतदाता राजनीतिक दलों और नेताओं को आर-पार की स्थिति में देखने की बजाए ‘कम बुरा’ और ‘ज्यादा बुरा’ की तरह देखता है और कम बुरे का साथ देता है। क्या यह अवधारणा मोदी बनाम ममता के चुनाव में मतदान को प्रभावित करेगी?

मोदी ने एक और बड़ा बदलाव यह लाया है कि भारत में जो कई पार्टियों के बीच चुनाव होता था, उसे उन्होंने दो लोगों के बीच का चुनाव बना दिया है। यही वजह है कि उनकी पार्टी अक्सर राहुल गांधी की बात करती है। 2014 से 2019 के बीच भाजपा ने अपना मत प्रतिशत 31.3 से बढ़ाकर 37.4 कर लिया। वहीं राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन का मत प्रतिशत 37 से बढ़कर 45 पर पहुंच गया। इसका एक मतलब यह हुआ कि 2019 में जिन लोगों ने वोट दिए, उनमें से आधे से ज्यादा भाजपा और उसके सहयोगियों का समर्थन नहीं करते।

हालांकि, बंगाल में ‘व्यक्ति आधारित’ चुनाव दोनों तरफ से है। जिस तरह से मोदी अपनी पार्टी से बड़े हैं, वही स्थिति ममता बनर्जी की भी है। ममता बनर्जी ही तृणमूल कांग्रेस हैं। हालांकि, दोनों के बीच चुनावी जंग में एक अंतर भी है। दीदी ने मतदाताओं से और खास तौर पर महिलाओं से जो भावनात्मक अपील की है, उससे उन्हें भाजपा पर बढ़त मिल सकती है। इस तरह की अपीलों का अपना महत्व है। अंदर ही अंदर किसी गठबंधन की संभावना से भी इनकार नहीं किया जा सकता। अगर चुनाव परिणाम करीबी रहते हैं तो ‘महाराष्ट्र माॅडल’ का कोई संस्करण बंगाल में भी दिख सकता है। लेकिन यह भी थोड़ा अलग इसलिए होगा कि जिस तरह से शिव सेना के पास कोई सहयोगी नहीं था, वही स्थिति बंगाल में भाजपा का है।

महाराष्ट्र के कांग्रेसी नेता गोपाल कृष्ण गोखले की एक बात को ‘असाधारणवादी’ बंगाली अब भी बहुत पसंद करते हैं। गोखले ने कहा था कि जो बंगाल आज सोचता है, वह बाकी भारत कल सोचता है। मोहनदास करमचंद गांधी और मोहम्मद अली जिन्ना दोनों गोखले को अपना गुरू मानते थे। हालांकि, गोखले का देहांत सिर्फ 48 साल की उम्र में 1915 में हो गया था। हालांकि, कुछ ही समय बाद बंगाल की आर्थिक गिरावट तब शुरू हो गई जब राजधानी कोलकाता से हटाकर दिल्ली लाई गई। देश के खूनी बंटवारे और राज्य में कम हुए औद्योगिकरण ने भी इसमें योगदान दिया। अब देखना होगा कि गोखले एक सदी बाद सही साबित होते हैं या गलत?

इस सवाल का जवाब पाठकों की अपनी वैचारिक प्रतिबद्धता और सोच पर निर्भर करता है। बंगाल के कितने मतदाता अपने वोट को राष्ट्रीय महत्व के संदर्भ में देख रहे हैं? मैं चाहता हूं कि मुझे पता हो। क्या 2 मई को हमें जवाब मिलेगा? इस बार इंतजार बहुत लंबा करना पड़ेगा क्योंकि पहली बार इस प्रदेश में आठ चरणों में चुनाव कराए जा रहे हैं।

(यह लेख मूल रूप से अंग्रेजी में कोलकाता से प्रकाशित होने वाले अखबार ‘दि टेलीग्राफ’ में 1 अप्रैल, 2021 को प्रकाशित हुआ था। इसका हिंदी अनुवाद हिमांशु शेखर ने किया है।)