भारत के प्रधान न्यायाधीश जस्टिस राजेंद्रमल लोढ़ा ने 25 अगस्त को कोयला खदान घोटाले के संबंध में फैसला सुनाते हुए जिस तरह के कठोर शब्दों का उपयोग किया, उसके बाद अगर वर्ष 1993 के बाद से आवंटित सभी 218 खदानों में से अधिकतर को जल्द ही निरस्त कर दिया जाता है तो किसी को हैरत नहीं होनी चाहिए। इससे भारतीय अर्थव्यवस्था के लिए बेहद महत्वपूर्ण निर्माण क्षेत्र को जरूर कुछ समय के लिए मुश्किलों का सामना करना पड़ सकता है, लेकिन अंतत: इससे राजनेताओं व कारोबार जगत से जुड़े उनके चहेतों को यह सख्त संदेश जरूर जाएगा कि कानून के राज में देर हो सकती है, अंधेर नहीं।
जस्टिस लोढ़ा की अध्यक्षता वाली सर्वोच्च अदालत की खंडपीठ, जिसमें जस्टिस मदन लोकुर और कुरियन जोसेफ भी शामिल थे, ने साफ शब्दों में कहा कि खदानें आवंटित करने के लिए जो प्रक्रिया अपनाई गई, वह न केवल गैरकानूनी थी, बल्कि भेदभावपूर्ण भी थी और उसमें पारदर्शिता का अभाव था। यही कारण था कि राष्ट्रीय संपदा के वितरण में जनहित की अनदेखी की गई। जिन संसाधनों पर देशवासियों का पहला हक था, उन्हें मनमाने तरीके से उन कंपनियों को दे दिया गया, जिन पर राजनीतिक रसूख रखने वाले लोगों का नियंत्रण है।
भारत की ऊर्जा संबंधी जरूरतों के लिए कोयला एक महत्वपूर्ण घटक है। देश में प्रयुक्त होने वाली बिजली के आधे से भी अधिक हिस्से का उत्पादन कोयले की मदद से किया जाता है। यह इस्पात, सीमेंट सहित कई अन्य उत्पादों के उत्पादन के लिए जरूरी है। लेकिन हमारे यहां जिस तरह से कोयले का उत्खनन किया जाता है, वह देश की राजनीतिक-आर्थिकी के संचालन में आई गड़बड़ियों और सर्वव्यापी भ्रष्टाचार की बानगी है। 1970 के दशक के प्रारंभ में इंदिरा गांधी की सरकार ने देश में कोयला खनन को राष्ट्रीयकृत कर दिया था। यह कदम निजी खननकर्ताओं द्वारा अवैज्ञानिक खनन प्रणालियां अख्तियार करने और श्रमिकों का अमानवीय रूप से शोषण किए जाने की निरंतर सामने आ रही खबरों की प्रतिक्रिया में उठाया गया था।
लेकिन राष्ट्रीयकरण के बावजूद कानून की अवमानना की परिपाटी कायम रही। धरती से अधिक से अधिक कोयला निकालने की होड़ में घने वनक्षेत्रों और उपजाऊ कृषिभूमियों को खोद दिया गया। इसके लिए उन स्थानीय रहवासियों की अनुमति भी नहीं ली गई, जो अपनी आजीविका के लिए इन वनक्षेत्रों व कृषिभूमियों पर निर्भर थे। अगस्त 2012 में कैग ने बताया कि बंधक कोयला खदानों में खनन के लिए स्क्रीनिंग कमेटी ने अनेक कंपनियों को मनमानीपूर्ण तरीके से लाइसेंसों का बंटवारा कर दिया। नतीजतन इन कंपनियों को तो जहां भारी मुनाफा हुआ, वहीं देश के सरकारी खजाने को खासी चपत लगी। कैग की रिपोर्ट में बताया गया कि कोयला खदानों के मनमाने आवंटन से देश को 1.8 लाख करोड़ की हानि हुई है।
जाहिर है, तत्कालीन यूपीए सरकार ने कैग की इस रिपोर्ट को बेबुनियाद बताते हुए खारिज कर दिया, लेकिन दो वर्ष बाद अब सर्वोच्च अदालत ने कैग की तमाम स्थापनाओं को सही ठहरा दिया है। मई 2004 में प्रधानमंत्री बनने के फौरन बाद डॉ. मनमोहन सिंह ने सिफारिश की थी कि कोयला खदानों का आवंटन खुली नीलामी प्रक्रिया के माध्यम से पारदर्शितापूर्वक किया जाए, लेकिन सरकार को अपने प्रधानमंत्री की अनुशंसा पर ही अमल करने में लगभग आठ साल लग गए।
इस प्रक्रिया में कोयले के उत्खनन का अधिकार प्राप्त करने वाली निजी कंपनियों के प्रमोटरों और संचालकों से जुड़े कई बड़े नाम भी सामने आए। इनमें विभिन्न पार्टियों के सांसद और केंद्रीय मंत्री भी शामिल हैं। ऐसी अनेक कंपनियों को बंधक कोयला खदानों के लिए लीज प्रदान कर दी गई, जिनका बिजली, इस्पात या सीमेंट के उत्पादन से कोई लेना-देना नहीं था। इनमें से कुछ फर्में तो तंबाकू और सीडी का उत्पादन करती थीं!
अप्रैल 2013 में कोलगेट घोटाले ने एक अप्रत्याशित और नाटकीय मोड़ लिया। सर्वोच्च अदालत ने सीबीआई को इस बात के लिए फटकार लगाई कि उसने अपनी जांच की स्टेटस रिपोर्ट सरकार को क्यों दिखाई। सरकार के शीर्ष कानूनी अधिकारियों ने इससे इनकार किया, लेकिन मीडिया में आई खबरों से खुलासा हुआ कि तत्कालीन केंद्रीय कानून मंत्री अश्वनी कुमार ने सीबीआई निदेशक रंजीत सिन्हा को अपने दफ्तर बुलवाया था। कोयला मंत्रालय और प्रधानमंत्री कार्यालय के अधिकारियों के साथ मिलकर उन्होंने सीबीआई की स्टेटस रिपोर्ट में बदलाव किए। सर्वोच्च अदालत के मुताबिक इससे जांच का मर्म ही बदल गया। इसी के बाद न्यायाधीशों ने सीबीआई के अधिकारियों को 'पिंजरे में बंद तोते" की चर्चित संज्ञा दी थी।
यह सर्वोच्च अदालत की सजगता और सक्रियता का ही परिणाम था कि भारत के तत्कालीन अतिरिक्त सॉलिसिटर जनरल हरेन रावल को इस्तीफा देने को मजबूर होना पड़ा। इससे पहले वे देश के तत्कालीन अटॉर्नी जनरल गुलाम वाहनवती को पत्र लिखकर बता चुके थे कि उन्हें बलि का बकरा बनाए जाने की कोशिशें की जा रही हैं। हरेन रावल ने कानून मंत्री अश्वनी कुमार को अपना इस्तीफा सौंपा और अंतत: मई 2013 में स्वयं कानून मंत्री को पद से त्यागपत्र देना पड़ा।
सरकार ने कोयला खनन को निजी क्षेत्र के लिए जरूर खोल दिया है, लेकिन वह इसके लिए कोई वैधानिक नियामक प्राधिकरण गठित करने में नाकाम रही है। कोलगेट घोटाले की कालिख इतनी गहरी है कि वह आसानी से नहीं मिटने वाली। आने वाले कुछ समय तक देश की अर्थव्यवस्था पर इसका असर देखा जाता रहेगा। देश में कोयला खदानों की विपुल संपदा होने के बावजूद आज हमें अपनी जरूरत के 20 से 25 फीसद कोयले का विदेशों से आयात करना पड़ता है। यह स्थिति भी आसानी से बदलने नहीं वाली। बहरहाल, उम्मीद की जा सकती है कि सर्वोच्च अदालत के ताजा फैसले के बाद अब यह तो सुनिश्चित किया ही जा सकेगा कि सत्ता में बैठे लोग देश की प्राकृतिक संपदाओं का मनमानीपूर्ण तरीके से आवंटन करने से पहले दस बार सोचेंगे।