मंगलवार को सीबीआई द्वारा दिल्ली सरकार के एक वरिष्ठ अधिकारी के कार्यालय पर मारे गए छापे के दौरान दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल को भी उनके दफ्तर में प्रवेश नहीं करने दिया गया। इसके पीछे की कहानी चाहे जो रही हो, प्रथमदृष्टया तो यह कार्रवाई भाजपा के लिए राजनीतिक रूप से नुकसानदेह साबित होने वाली लग रही है। सीबीआई द्वारा दिल्ली सरकार के प्रमुख सचिव राजेंद्र कुमार के घर और कार्यालय पर छापा मारने के निर्णय के पीछे क्या वजहें थीं, ये पृथक से बहस का विषय है। लेकिन अगर इस कार्रवाई के राजनीतिक निष्कर्षों पर विचार किया जाए तो बहुत संभव है कि इसके बाद पहले से सरकार के खिलाफ खड़ा विपक्ष पूरी तरह उसके विरोध में लामबंद हो जाए और केजरीवाल खुद को सरकार के हथकंडों का शिकार घोषित करने लगें। मंगलवार शाम केजरीवाल ने जिस अंदाज में मीडिया से बात करते हुए कहा कि वे सरकार की हरकतों से डरने वाले नहीं हैं, उससे तो यही लगता है कि वे इस लड़ाई को बहुत आगे ले जाने की तैयारी कर रहे हैं। पहले ही संसद में विपक्ष के असहयोग के कारण निर्मित गतिरोध का सामना कर रही सरकार यकीनन ऐसा नहीं चाहती होगी।
चलिए मान लेते हैं कि सीबीआई जांच के बाद दिल्ली सरकार के प्रमुख सचिव एक भ्रष्ट अधिकारी साबित होते हैं। लेकिन तब भी सियासी रूप से ज्यादा महत्व किस बात को दिया जाएगा? इसे कि केजरीवाल सरकार ने एक भ्रष्ट को प्रश्रय दे रखा था, या इसे कि एक लोकतांत्रिक रूप से निर्वाचित मुख्यमंत्री को अपने कार्यालय में प्रवेश नहीं करने दिया गया? अगर प्रधानमंत्री कार्यालय में किसी अधिकारी के भ्रष्टाचार में लिप्त होने की शिकायत पर सीबीआई वहां छापा मारती है, तो क्या उस स्थिति में पीएमओ में भी एक घंटे के लिए कामकाज पूरी तरह से ठप कर दिया जाएगा?
नेशनल हेराल्ड वाले मामले को कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी और उपाध्यक्ष राहुल गांधी पहले ही अपनी प्रतिष्ठा का प्रश्न बनाए हुए हैं। इसी बहाने उनके नेतृत्व में कांग्रेस पार्टी द्वारा संसद को भी ठप किया गया। सोनिया और राहुल गांधी आरोप लगा रहे हैं कि केंद्र सरकार राजनीतिक विद्वेष की मंशा से उनके खिलाफ कार्रवाई कर रही है। लेकिन नेशनल हेराल्ड वाला मामला तो अदालती प्रक्रिया से जुड़ा हुआ था। उसकी तुलना में सीबीआई की गतिविधियां सरकार की मंशा से अधिक संचालित होने वाली मानी जाती हैं। कोई आश्चर्य नहीं अगर केजरीवाल राजनीतिक विद्वेष की कार्रवाई का एजेंडा सोनिया और राहुल के हाथों से ले उड़ें और खुद को सरकार का नया शिकार बनाकर प्रचारित करें। और यह घटना जिस तरह से तमाम विपक्षी दलों को सरकार के खिलाफ लामबंद कर सकती है, उसकी तो खैर कल्पना ही नहीं की जा सकती।
केंद्र सरकार के मंत्रियों ने सरकार का पक्ष रखते हुए कहा है कि सीबीआई द्वारा की गई कार्रवाई भ्रष्टाचार के खिलाफ उठाया गया कदम है और इससे सरकार का कोई लेना-देना नहीं है, और यह कि सीबीआई सरकार से पृथक एक जांच एजेंसी है। लेकिन सीबीआई को सरकार का पालतू तोता कहा जाता रहा है और सरकार के घोर समर्थक भी शायद ही इस बात को मानेंगे कि सीबीआई द्वारा की गई इस कार्रवाई की केंद्र सरकार को कोई जानकारी नहीं थी। सीबीआई निदेशक अनिल सिन्हा ने भी साफ कहा है कि सरकार के एक भी मंत्री या ओहदेदार से उनकी या उनके किसी अधिकारी की बात नहीं हुई है और न ही सीबीआई को किसी के द्वारा निर्देशित किया गया है कि उसे क्या करना है, लेकिन शायद ही कोई उनकी बात पर यकीन करेगा।
वास्तव में भाजपा के पार्टी सूत्रों से ही ऑफ द रिकॉर्ड बातचीत करने पर यह सामने आता है कि सीबीआई की इस कार्रवाई के बाद अब सरकार के लिए इसके राजनीतिक नतीजों का सामना करना शायद बहुत चुनौतीपूर्ण साबित हो।
सीबीआई के छापे का यह भी मतलब निकाला जाना चाहिए कि सरकार ने अब इस बात की उम्मीद छोड़ दी है कि संसद के शीतकालीन सत्र में कोई विधायी कामकाज हो सकेगा। सोमवार को एक टीवी इंटरव्यू में वित्त मंत्री अरुण जेटली ने पहले ही कह दिया कि संसद का शीतकालीन सत्र पूरी तरह से धुल चुका है! दूसरे शब्दों में, सरकार मन ही मन इस बात के लिए तैयारी कर चुकी है कि अब जो भी होगा, देखा जाएगा।
पार्टी सूत्रों के अनुसार सरकार जिन बिंदुओं पर अपना पक्ष मजबूती से रखने की कोशिश करेगी, वे इस प्रकार होंगे : पहला, भ्रष्टाचार के आरोप लगने पर भाजपा सख्त एक्शन लेने से कतई हिचकती नहीं है। जब मध्य प्रदेश में वह अपनी ही सरकार के मंत्री को व्यापमं घोटाले में गिरफ्तार करवा सकती है तो दिल्ली सचिवालय का एक अधिकारी क्या चीज है। दूसरा, यह पहली बार नहीं है जब सीबीआई द्वारा बिना पूर्व-सूचना के किसी सरकारी कार्यालय पर छापा मारा गया हो। यह उसकी कार्यप्रणाली का हिस्सा है। वास्तव में जब सितंबर में राजस्थान के प्रमुख सचिव (खनन) अशोक सिंघवी को एंटी करप्शन ब्यूरो द्वारा गिरफ्तार किया गया था तो खुद मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे को ही इसकी सूचना नहीं दी गई थी। और तीसरा यह कि किसी सरकारी अधिकारी के कागजात की जांच करने के दौरान मुख्यमंत्री की फाइलों की भी जांच करना सीबीआई के लिए आम बात है। इसमें नया कुछ नहीं है और केजरीवाल अकारण ही बात का बतंगड़ बना रहे हैं।
लेकिन इतना तो भाजपा सूत्रों का भी मानना है कि इसके बाद अब विपक्ष को सरकार के खिलाफ लामबंद होने से रोकना बहुत मुश्किल हो जाएगा। उन्होंने यह भी स्वीकारा कि इससे तृणमूल और वाम और सपा और बसपा जैसे धुर राजनीतिक प्रतिद्वंद्वी भी एकजुट हो सकते हैं। और पहले ही स्वीकार्यता के संकट से जूझ रही मोदी सरकार के लिए यह कोई बहुत अच्छी खबर साबित नहीं होने वाली।
अक्टूबर 1977 में जब मोरारजी देसाई सरकार के गृह मंत्री चरन सिंह ने इंदिरा गांधी को गिरफ्तार करवाया था तो इंदिरा ने इस फैसले को अपने लिए राजनीतिक रूप से फायदेमंद बना लिया था। उन्होंने जमानत पर जेल से छूटने से इनकार कर दिया और एक रात सलाखों के पीछे बिताने का निर्णय लिया था। बाद में उन्होंने इसे जमकर भुनाया कि किस तरह उनके राजनीतिक विरोधियों द्वारा उन्हें तंग किया गया है। वे खुद को निर्दोष बताते हुए लोगों को यह यकीन दिलाने में भी कामयाब हो गईं कि आपातकाल के दौरान उनके नाम का दुरुपयोग करते हुए अत्याचार किए गए थे। आखिरकार वे शानदार वापसी करने में सफल रहीं। सरकार को इतिहास से सबक लेते हुए इस भूल से बचने की कोशिश करना चाहिए थी।