मार्च, 2020 के तीसरे हफ्ते से लेकर जून के अंत तक में भारत ने लोगों का सबसे बड़ा पलायन देखा। इसे सिर्फ संख्या के दायरे में बांधकर नहीं देखा जा सकता। क्योंकि आंकड़ों के मूल में करोड़ों लोग हैं। इनमें बहुत सारे छोटे बच्चे, बुजुर्ग महिलाओं और पुरुषों के अलावा युवा लोग भी हैं। लोगों की याददाश्त में ‘दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र’ ने कभी ऐसी अफरा-तफरी, परेशानी और मायूसी को नहीं देखा था। यह मुश्किल ऐसी थी जिसे टाला जा सकता था। अगर हमारे देश के शासक गरीबों के लिए थोड़े कम अधिनायकवादी और कम उदासीन होते और साथ ही अपने चापलूसों के अलावा दूसरों की भी सुनते तो भारत के लिए सात दशक की सबसे बड़ी मानवीय आपदा यह नहीं बनती।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में 1.35 अरब लोगों के इस देश को बंगाल अकाल की याद आ गई। बंगाल का अकाल, द्वितीय विश्वयुद्ध और भारत विभाजन, तीनों घटनाएं करीब-करीब एक साथ 1943 से 1948 के बीच हुईं। यह कहना गलत होगा कि उस समय से लेकर अब तक कोई बदलाव नहीं हुआ। लेकिन उस आपदा में और इस बार की आपदा में इतनी समानताएं हैं कि इन्हें नजरअंदाज नहीं किया जा सकता है।
1943 में जब बंगाल में भयानक अकाल पड़ा तो उस समय अंग्रेज सरकार ने यह माना ही नहीं कि अकाल की स्थिति है। मौजूदा सरकार भी यही कर रही है। एक ऐसे समय में जब भारतीय खाद्य निगम के गोदामों में बफर स्टॉक से तीन गुना गेहूं और चावल है तो भी सरकार यह मानने को तैयार नहीं है कि लोग भूख और कुपोषण की समस्या से जूझ रहे हैं। इतने अधिक भंडार के बावजूद पहले सरकार ने और खास तौर पर दिवंगत रामविलास पासवान के नेतृत्व वाले उपभोक्ता मामले, खाद्य एवं सार्वजनिक वितरण मंत्रालय ने अतिरिक्त भंडार को निशुल्क बांटने से पहले अपने पैर पीछे हटा लिए थे लेकिन बाद में सरकार इसके लिए तैयार हो गई।
एक सामान्य सवाल पूछा जाना चाहिएः आखिर सरकार ने क्यों नहीं रक्षा सेवाओं को ये कहा कि जो प्रवासी लोग और परिवार अपने घरों की ओर जा रहे हैं उन्हें सूखा और पका-पकाया खाना दिया जाए और उनकी मदद की जाए? केंद्रीय अन्वेषण ब्यूरो में संयुक्त निदेशक रहे शांतनु सेन कहते हैं कि प्राकृतिक आपदा की स्थिति में सरकार अक्सर सैन्य बलों की मदद लेती है तो इस बार भी 24 मार्च से लेकर पूरे अप्रैल महीने तक भारतीय सेना को इनकी मदद में लगाया जाना चाहिए था। यह याद रहे कि उस समय तक चीन की सेना के साथ विवाद नहीं हुआ था।
बंगाल के भयानक अकाल के वक्त द्वितीय विश्व युद्ध में लड़ने के लिए कोलकाता आए लाखों सैनिकों की जरूरत से अधिक अनाज उपलब्ध था। लेकिन उस साल 30 लाख लोगों की मौत अकाल में हुई क्योंकि वे चावल की कीमतों में हुई बहुत तेज बढ़ोतरी के कारण इसे खरीद नहीं सकते थे। अंग्रेज सरकार ने कभी आधिकारिक तौर पर इसे अकाल घोषित नहीं किया। भारत के औपनिवेशिक शासकों ने यह दिखाने की कोशिश की कि किसी की मौत भूख से नहीं हुई। अभी भी भारतीय अधिकारी यही कर रहे हैं। ऑस्ट्रेलिया से खाद्यान्न नहीं आयात किया गया था। बल्कि भारत से खाद्यान्य निर्यात किया गया। उस वक्त विंस्टन चर्चिल ने बयान दिया था कि भारतीय लोग चूहों की तरह बच्चे पैदा कर रहे हैं।
इतिहासकार जनम मुखर्जी ने एक पुस्तक लिखी है ‘हंगरी बंगालः वॉर, फमाइन ऐंड दि एंड ऑफ इम्पायर’, इसे ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय ने 2015 में प्रकाशित किया था। इसमें वे लिखते हैं, ‘आधिकारिक तौर पर 1940 के दशक में बंगाल में कोई अकाल नहीं पड़ा था। अंग्रेज सरकार ने कभी इसकी घोषणा नहीं की। क्योंकि ऐसा करने पर अकाल कानून को लागू करना पड़ता। 19वीं सदी के आखिरी दिनों में बने इस कानून में इस बाबत दिशानिर्देश दिए गए थे कि ऐसी स्थितियों में राहत कैसे पहुंचानी है। लेकिन अंग्रेज सरकार ने अपने पूरे कार्यकाल में कभी यह स्वीकार नहीं किया कि उसके नाक के नीचे लोगों का सामूहिक शोषण हो रहा है।’
दोनों आपदाओं में कई समानताएं दिखती हैं। 15 मई को केंद्रीय रेल, वाणिज्य और उद्योग मंत्री ने यह बयान दिया कि भारत में एक भी व्यक्ति की भूख से मौत नहीं हुई है। उन्होंने यह मान लिया कि कुपोषण और आने-जाने में हुई परेशानियों की वजह से हुई मौतों को भूख से हुई मौत नहीं माना जाना चाहिए।
अजीम प्रेमजी विश्वविद्यालय द्वारा किए गए एक अध्ययन1 से अलग ही कहानी उभरकर सामने आती है। इसमें कई ऐसे सर्वेक्षणों का हवाला दिया गया है जिसमें यह बताया गया है कि रोजी-रोटी बहुत बुरी तरह से प्रभावित हुई है। खाद्य असुरक्षा और आर्थिक दिक्कतें काफी बढ़ी हैं। साथ ही यह भी बताया कि आर्थिक तंगी की वजह से भूखमरी और खुदकुशी की वजह से मौत की घटनाओं की रिपोर्ट देश के कई हिस्सों से आई है।
सामाजिक क्षेत्र में काम करने वाले संगठनों ने 13 अप्रैल से 23 मई के बीच 5,000 स्वरोजगार करने वालों, अस्थाई और स्थायी श्रमिकों के बीच एक सर्वेक्षण किया। इसमें यह बात सामने आई कि बेरोजगारी बहुत बढ़ी और कमाई काफी कम हुई है। जवाब देने वालों में से दो-तिहाई लोगों ने बताया कि उनका काम छूट गया है और जिन अनौपचारिक श्रमिकों के पास लॉकडाउन में भी रोजगार था, उनकी आमदनी आधी से भी कम हो गई है।
ऐसे किसानों की बड़ी संख्या थी जो या तो अपने उत्पाद बेच ही नहीं पाए या फिर कम कीमत पर बेचने को मजबूर हुए। बीज और उर्वरक के लिए जो पैसे बचाकर रखे थे, उसमें से खर्च होने लगा। दस में से आठ लोग पहले के मुकाबले कम खाना खा रहे थे। इस रिपोर्ट में बताया गया, ‘रोजगार छूटने और खाद्यान्न असुरक्षा की स्थिति कुछ सामाजिक वर्गों में अधिक थी। इनमें मुस्लिम, दलित, महिलाएं और कम साक्षर लोग शामिल हैं।’
इसके बावजूद भारत सरकार ने गृह मंत्रालय के सचिव अजय कुमार भल्ला और भारत के सोलिसिटर जनरल तुषार मेहता के जरिए उच्चतम न्यायालय में 31 मार्च को कहवाया कि मौजूदा संकट के बारे में फर्जी खबरों का प्रसार करके मीडिया को भय का माहौल बनाना बंद करना चाहिए और किसी भी खबर को प्रसारित करने से पहले उसके तथ्य की पड़ताल सरकार से करनी चाहिए। उसी शाम को भारत के मुख्य न्यायाधीश एस.ए. बोबड़े की अध्यक्षता वाली खंडपीठ जिसमें न्यायमूर्ति एल. नागेश्वर राव ने एक दिशानिर्देश2 जारी किया। इसे यथावत यहां दिया जा रहा हैः
शहरों से बड़ी संख्या में मजदूरों का पलायन इसलिए तेजी से बढ़ा कि ऐसी फर्जी खबरें चलाई गईं कि लॉकडाउन तीन महीने से अधिक समय तक चल सकता है। इन खबरों पर जिन लोगों ने विश्वास किया और उस हिसाब से इन पर अमल किया, उन्हें काफी कठिनाइयों का सामना करना पड़ा। इसलिए हमारे लिए यह संभव नहीं है कि इलेक्ट्रॉनिक, प्रिंट और सोशल मीडिया द्वारा फैलाए जा रहे फर्जी खबरों के मसले को नजरअंदाज करें। आपदा प्रबंधन कानून, 2005 की धारा 54 के मुताबिक किसी आपदा की तीव्रता को लेकर फैलाए जा रहे फर्जी दावों जिससे अफरा-तफरी का माहौल बन सकता है, उसके लिए दंड दिया जा सकता है। ऐसा करने वालों को एक साल तक की कैद या जुर्माना या दोनों का प्रावधान है।
अदालत ने मीडिया से कहा कि भय पैदा करने वाले ‘अपुष्ट खबरों’ को प्रसारित नहीं करें। अदालत ने कहा, ‘हमारी नीयत महामारी के बारे में मुक्त विचार-विमर्श को रोकने की नहीं है लेकिन मीडिया को इससे जुड़ी बातों पर मीडिया को आधिकारिक बातों को ही प्रकाशित करना चाहिए।’
लेकिन तब क्या होगा जब सरकार खुद ही झूठ फैलाने लगे? 31 मार्च को ही सरकार ने उच्चतम न्यायालय में यह दावा किया कि देशभर की सड़कों पर कहीं भी ‘कोई एक भी’3 प्रवासी मजदूर नहीं है। इससे बड़ा झूठ कोई हो नहीं सकता था। हाल के याददाश्त में जब देश सबसे बड़ा आंतरिक पलायन झेल रहा था तो इसे मीडिया का एक वर्ग दिखा रहा था और सरकार के झूठ की पोल खोल रहा था।
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औपनिवेशिक शासकों ने सूचनाओं को दबा दिया था और राष्ट्रवादी प्रेस पर बंदिशें लगा दी थीं। चर्चिल बुरी तरह से भारत के लोगों का दमन करना चाहते थे। वे भारत के लोगों को गुलामी का एक सबक देना चाहते थे। मौजूदा सरकार अपने राजनीतिक विरोधियों और पत्रकारों समेत अपने आलोचकों के खिलाफ बदले की भावना से काम करती है। मार्च से जुलाई, 2020 के बीच, कम से कम 60 पत्रकार ऐसे हैं जिनमें से कुछ की हत्या हो गई, कुछ जेल गए, कुछ को अदालती नोटिस भेजे गए और कुछ के खिलाफ पुलिस ने प्राथमिकी दर्ज कराई। भारतीय दंड संहिता और आपराधिक प्रक्रिया संहिता के साथ-साथ अवैध गतिविधियों के निषेध के लिए बने कानून4 का भी दुरूपयोग किया गया। इससे सरकार के कामकाज के खिलाफ और सत्ताधारी दल के लोगों और समर्थकों के खिलाफ आलोचनात्मक रिपोर्ट देने वाले पत्रकारों पर बहुत बुरा असर पड़ा।
बंगाल अकाल के वक्त अंग्रेज सरकार ने एक ऐसी नीति अपनाई थी जिसमें दुश्मनों के काम आ सकने वाली हर चीज को नष्ट किया जा रहा था। अकाल के वक्त वह चीज भारत के आम लोग हो गए थे। सम्राज्यवादी शासकों ने उन नावों को तोड़ दिया जिनके जरिए अनाज को एक जगह से दूसरी जगह ले जाया जा सकता था और आपूर्ति तंत्र को भी तहस-नहस कर दिया। बहुत सारे लोग इस बात से असहमत होंगे कि नरेंद्र मोदी सरकार ने भी गरीबों को लेकर ऐसा ही रवैया अपनाया। लेकिन एक स्तर पर एक समानता है।
अंग्रेजों की तरह हमारी सरकार ने भी राहत पहुंचाने के लिए अपनी एजेंसियों पर कम और निजी संस्थाओं जैसे एनजीओ और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ जैसे संगठनों पर अधिक विश्वास किया। प्रधानमंत्री ने 24 मार्च की शाम को अपने भाषण में लॉकडाउन की घोषणा की और उसके दो दिन बाद 26 मार्च को प्रधानमंत्री गरीब कल्याण अन्न योजना की घोषणा हुई। एक अहम सवाल यह है कि अगर इस योजना की घोषणा प्रधानमंत्री के लॉकडाउन के घोषणा के वक्त ही हो जाती तो क्या इस पलायन को एक हद तक रोका जा सकता था।
यह योजना पहले प्रधानमंत्री गरीब कल्याण योजना का हिस्सा थी। राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा कानून के तहत आने वाले 81 करोड़ राशन कार्डधारियों के अलावा आठ करोड़ प्रवासी लोगों को प्रति व्यक्ति हर महीने पांच किलो अनाज और प्रति परिवार एक किलो दाल या चना मुफ्त में देने का प्रावधान इस योजना के तहत किया गया। यह जन वितरण प्रणाली के तहत मिलने वाले खाद्यान्न के अतिरिक्त था। पहले इस योजना को जून के अंत तक चलाया जाना था लेकिन प्रधानमंत्री ने इसे बढ़ाकर नवंबर के अंत तक चलाया।
ध्यान देने वाली बात यह है कि इस योजना के दायरे में देश की 40 फीसदी आबादी नहीं आती। प्रवासी मजदूरों के लिए एक देश और एक राशन कार्ड योजना को लागू होने में कुछ वक्त लगेगा। केंद्र सरकार ने एक ऐसी योजना की घोषणा कर दी जिसका क्रियान्वयन विभिन्न राज्य सरकारों को करना था। ऐसा करके केंद्र सरकार ने करोड़ों गरीब लोगों के पलायन की जिम्मेदारी से खुद को बचाने की कोशिश की। केंद्र सरकार ने कहा कि वह तो काम कर ही रही है लेकिन राज्य सरकारों के स्तर पर क्रियान्वयन संबंधित दिक्कतों और लीकेज के लिए वह जिम्मेदार नहीं है और इस वजह से यह योजना उतने प्रभावी ढंग से लागू नहीं हो पाई।
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अतीत से दूसरी समानताएं भी हैं। बंगाल के भयानक अकाल के वक्त जब सैनिकों को खाद्यान्न और दूसरी सुविधाएं दे दी गईं तब अंग्रेज सरकार ने नागरिकों को श्रेणियों में बांटकर सुविधा देने की शुरुआत की। बंगाली समाज के मध्य वर्ग या यों कहें कि भद्रलोक को सुविधाएं दी गईं। वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने 20 लाख करोड़ रुपये के जिस राहत पैकेज की घोषणा की है, वह भी मध्य वर्ग के लिए ही है। यह गरीबों, बेरोजगारों और प्रवासियों के लिए उतना काम का नहीं है।
लॉकडाउन लगने के बाद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने पहली बार मन की बात 29 मार्च को रेडियो पर की। उन्होंने लोगों से इस बात के लिए माफी मांगी कि उन्हें दिक्कतों का सामना करना पड़ रहा है। उन्होंने महामारी के दौरान अग्रिम में काम करने वाले लोगों, डॉक्टरों और नर्सों की तारीफ की और उनका शुक्रिया अदा किया। जबकि उन प्रवासियों के लिए एक शब्द भी नहीं कहा गया जो अपने जिंदगी की सबसे लंबी और मुश्किल यात्रा पर निकलने को विवश हुए थे।
कर्नाटक सरकार ने बिल्डरों की मदद करने के लिए मजदूरों के साथ जोर-जबर्दस्ती करके उन्हें अपने घर वापस जाने से रोकने का काम किया। उत्तर प्रदेश में प्रवासी मजदूरों पर संक्रमण रोधी केमिकल का छिड़काव इस तरह से किया गया जैसे वे इंसान नहीं जानवर हों। जो लोग चीन के वुहान से या दुनिया के दूसरे हिस्सों से आए थे, उनके साथ भी ऐसा बर्ताव नहीं किया गया था।
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अभी जो दुनिया की लड़ाइयां हैं, वह पहले के विश्व युद्ध के मुकाबले अलग हैं। लेकिन गरीब और हाशिये के लोगों के जीवन पर इसका काफी विनाशकारी प्रभाव पड़ रहा है। कुछ उसी तरह का जिस तरह का प्रभाव युद्ध के वक्त पड़ता था। लोगों की जान गई है और लोगों का रोजगार खत्म हुआ है। इससे जो आर्थिक सुस्ती आई है, वह बड़ी मंदी में भी तब्दील हो सकती है। जिस तरह से गंभीर बीमारियों से लोग मरते हैं, उसी तरह से वंचित होकर भी लोगों को जान से हाथ धोना पड़ता है।
एक और समान बात यह है कि हर सात में एक भारतीय को इस्लाम का भय दिखाकर ‘अलग-थलग’ करने की कोशिश की गई। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और भारतीय जनता पार्टी की हिंदू राष्ट्र की जो अवधारणा है, उसके आधार पर देश के अंदर एक नया विभाजन हुआ है। संघ परिवार के समर्थकों की नजर में मुस्लिम इस देश के हिंदुओं के साथ रह सकते हैं। लेकिन उन्हें यह स्वीकार करना होगा कि उनके पुरखों का जबरन धर्मांतरण कराया गया और उन्हें यह बात माननी होगी कि ‘प्रथम श्रेणी’ के नागरिकों से अलग उनकी एक श्रेणी है। हालांकि, धर्मनिरपेक्ष देश में खुले तौर पर इस बात को नहीं कहा जा सकता।
देश के बंटवारे के बाद जो पलायन शुरू हुआ था, वह 1948 तक चला। अनुमान लगाया गया कि पंजाब और बंगाल के 1.5 करोड़ से अधिक लोगों को अपनी जड़ों को छोड़कर विस्थापित होना पड़ा। 2020 के मार्च, अप्रैल, मई और जून में सैकड़ों किलोमीटर की यात्रा करने को कितने लोगों को मजबूर होना पड़ा? हम लोगों में से कुछ लोगों को इसे देखकर बहुत बुरा लगा होगा लेकिन यह एक सच्चाई है कि इस स्तर का भयावह पलायन की तुलना बंटवारे के वक्त हुए पलायन से ही की जा सकती है।
पाकिस्तानी इतिहासकार आयशा जलाल ने बंटवारे की व्याख्या5 दक्षिण एशिया की 20वीं सदी की एक ऐसी ऐतिहासिक घटना के तौर पर की है जो न सिर्फ शुरुआत और न ही अंत बल्कि उत्तरऔपनिवेशिक दक्षिण एशिया के भूत, वर्तमान और भविष्य की व्याख्या करने वाला है। जनम मुखर्जी कहते हैं कि बंगाल के अकाल को 20वीं सदी के भारत या यों कहें कि विश्व इतिहास का केंद्र बिंदु माना जा सकता है।
अर्थव्यवस्था को चलाने में प्रवासियों की भूमिका कभी इतनी मजबूती से नहीं दिखी जितनी अभी दिख रही है। 2011 की जनगणना में यह बात आई थी कि देश में 40 करोड़ प्रवासी हैं। हमारे देश में और हमारे शहरों में श्रम यही मुहैया कराते हैं। अगर हमने अतीत में उन्हें वह महत्व नहीं दिया जिसके वे हकदार थे तो आज हमारे पास कोई विकल्प नहीं है। प्रवासी कौन है? एक नागरिक के तौर पर उनके अधिकार क्या हैं? ऐसे कितने लोग भारत में हैं? इन मसलों पर विस्तार से चर्चा6 मानवाधिकार अधिवक्ता और लेखिका नंदिता हक्सर ने न्यूजक्लिक में 6 जुलाई, 2020 को प्रकाशित अपने लेख में की है।
वो यह सवाल उठाती हैं कि प्रवासियों से अपने देश के नागरिकों की तरह व्यवहार करने के बजाए आखिर क्यों बाहरी की तरह बर्ताव किया जाता है। संविधान, कानून और अंतरराष्ट्रीय श्रम मानक उन्हें बराबरी का हक देते हैं। हक्सर कहती हैं, ‘आज जरूरत इस स्थिति में हस्तक्षेप की है। ताकि प्रवासियों को अपने गृह राज्य में और दूसरे जगहों पर भी वे जहां जाते हैं, वहां उन्हें जीवनयापन का उनका अधिकार मिल सके।’
वे आगे लिखती हैं, ‘अंतरराष्ट्रीय एजेंसियां सुरक्षित पलायन की अवधारणा विकसित कर रही हैं। हमें इस अवधारणा को अपने संदर्भों में बारीकी से देखने की जरूरत है।’
वे यह मानती हैं कि प्रवासी मजदूरों को आवाज तब हासिल होगी जब वे राजनीतिक तौर पर प्रासंगिक हो जाएं। वे कहती हैं, ‘उन्हें वोट देने की अनुमति देने का कोई तरीका तलाशना चाहिए। उनके पास यह सुविधा हो कि या तो वे अपने गृह राज्य में या जहां काम करते हैं, वहां वोट दे सकें। साथ ही राजनीतिक दलों से भी यह मांग करनी चाहिए कि वे प्रवासी मजदूरों पर अपने विचार स्पष्ट करें। ऐसा होने पर ही प्रवासी मजदूर एक नागरिक के तौर पर अपने अधिकारों को हासिल कर पाएंगे।’
नरेंद्र मोदी सरकार इस कटु सत्य को सार्वजनिक तौर पर स्वीकार क्यों नहीं करती कि 25 से लेकर जून के अंत तक क्या-क्या हुआ? क्या हमारे शासकों को यह लगता है कि भयंकर पलायन के बारे में अगर जानकारियां सार्वजनिक कर देंगे तो गरीबों के प्रति उनकी असंवेदनशीलता जगजाहिर हो जाएगी? आत्मनिर्भर भारत की बात करके क्या आर्थिक मोर्चे और रोजगार देने के सवाल पर अपनी नाकामियों को छिपाने का काम सरकार कर रही है।
सच्चाई को छिपाने की तमाम कोशिशों के बावजूद सत्ताधारी दल में हर हाल में हिमायत करने वाले लोग यह सुनिश्चित नहीं कर पाएंगे कि लोग इस त्रासदी की तकलीफों को भूल जाएं।
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क्या प्रधानमंत्री को ऐसा लगता है कि 24-25 मार्च की मध्यरात्रि से सिर्फ साढ़े तीन घंटे के नोटिस पर लॉकडाउन की घोषणा करके वे बच निकलेंगे? जो लोग उनके आसपास हैं उन लोगों ने इसके भयानक परिणामों के बारे में उन्हें आगाह क्यों नहीं कराया? इन लोगों ने अपनी आवाज खो दी है। एक मजबूत नेता से नजदीकी रखने की चाह उन्हें ऐसे निर्णयों पर भी सवाल नहीं उठाने देती। आलोचना की बात तो बहुत दूर है। क्या प्रधानमंत्री नवंबर, 2016 में 84 फीसदी नोटों को चलन से बाहर करने की घोषणा करके सारी जिम्मेदारियों से नहीं बच गए। इसके बाद उनकी पार्टी ने उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनावों में उम्मीद से बड़ी सफलता हासिल की। जल्दबाजी में वस्तु एवं सेवा कर यानी जीएसटी लागू करने से लोगों को भले ही परेशानियां हुई हों लेकिन क्या प्रधानमंत्री को इससे कोई नुकसान हुआ?
भले ही ये सवाल अक्सर पूछे जाने वाले लगते हों लेकिन फिर भी इन्हें बार-बार उठाया जाना चाहिए। वैचारिक तौर पर प्रतिद्वंदी रहे स्टालिन, रूजवेल्ट और चर्चिल को एक होना पड़ा तब जाकर ये लोग हिटलर, मुसोलिनी और तोजो की फासीवादी ताकतों को हरा पाए। सत्ताधारी दल के विरोधी न सिर्फ कमजोर हैं बल्कि बुरी तरह से बंटे हुए हैं। भाजपा विरोधी सभी ताकतों के एक होने का ‘महाराष्ट्र मॉडल’ दूसरी जगहों पर भी दोहराया जा सकता है?
24 मार्च, 2020 के बाद भारत और अधिनायकवादी दौर की ओर बढ़ा है। व्यापक और सूक्ष्म स्तर पर अधिनायकवादी नेताओं का महत्व बढ़ रहा है। प्रधानमंत्री और वित्त मंत्री ने 20 लाख करोड़ रुपये की राहत पैकेज की घोषणा की। लेकिन इसका दस फीसदी ही नया था। केंद्र और राज्य के स्तर पर जिस तरह से कुछ ही महीनों में नौकरशाहों द्वारा 4,000 से अधिक नियम जारी किए गए, उससे लगता है कि वे पहले कभी से अभी सबसे अधिक ताकतवर हैं। इसलिए इसमें हैरानी नहीं होनी चाहिए कि देश में पंचायत प्रमुख से लेकर रेजिडेंट वेलफेयर संघ के प्रमुख भी तानाशाह की तरह काम कर रहे हैं।
एक बच्चे के तौर पर मैंने 1950 और 1960 का दशक कोलकाता में गुजारा है। इस शहर में मेरे अभिभावक शरणार्थी के तौर पर बांगलादेश से आए थे जिसे उस समय पूर्वी पाकिस्तान कहा जाता था। मेरे मां-बाप मुझे भयानक बंगाल अकाल के बारे में बताते थे और ये भी बताते थे कि खाना बर्बाद नहीं करने का क्या महत्व है। इन लोगों ने मुझे बताया था कि जिस शहर में आए थे वहां जापान की बमबारी के बाद इतने लोगों की जान गई थी कि नालियों में खून बहता था। यह सब गांधी के अनशन के बावजूद हो रहा था। 64 साल की उम्र में मुझे कभी नहीं लगा था कि उनके अनुभव समझ आएंगे। मैं खुद को भारत का स्वाभिमानी नागरिक मानता हूं लेकिन आज मेरा सर शर्म से झुका हुआ क्योंकि एक देश के तौर पर हम 70 साल से अधिक पीछे चले गए हैं।
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- https://www.newyorker.com/magazine/2015/06/29/the-great-divide-books-da…
- https://www.newsclick.in/Migrant-Citizen-Workers-Covid-19