खर्च घटाकर विकास

लोकसभा चुनाव में भारी बहुमत के साथ जीत हासिल कर नरेंद्र मोदी सरकार जब सत्ता में आई, तो लोगों को काफी उम्मीदें थीं। नरेंद्र मोदी ने लोगों से प्रभावी शासन का वायदा किया था, लेकिन सात महीने के शासन के बाद भी सरकार के कई मंत्रालयों की कार्यशैली में कोई बदलाव नहीं दिख रहा है। अगर सरकार के मिड ईयर इकोनोमिक एनलिसिस को देखें, तो पता चलता है कि कई महत्वपूर्ण मंत्रालय अपने बजट का काफी हिस्सा खर्च ही नहीं कर पाए हैं। सत्ता में आते ही सरकार ने घोषणा की थी कि गंगा और अन्य नदियों को स्वच्छ बनाया जाएगा। लेकिन तथ्य यह है कि जल संसाधन, नदी विकास और गंगा जीर्णोद्धार मंत्रालय, जिसका नाम बदलकर मोदी सरकार ने जल संसाधन, नदी विकास और गंगा संरक्षण मंत्रालय कर दिया, सितंबर, 2014� यानी मौजूदा वित्त वर्ष की छमाही तक अपने आवंटित बजट का मात्र छह फीसदी ही खर्च कर पाया। जबकि पिछले वित्त वर्ष में इसी अवधि के दौरान इस मंत्रालय ने आवंटित बजट का 19 फीसदी खर्च किया था, हालांकि वह भी कम ही था।

सिर्फ जल संसाधन ही नहीं, कुछ और मंत्रालय हैं, जो मौजूदा वित्त वर्ष की छह महीने की अवधि के दौरान अपने बजट का मात्र 15 फीसदी ही खर्च कर पाए हैं। मिड ईयर इकोनोमिक एनालिसिस के मुताबिक, वित्त वर्ष के छह महीने पूरे होने तक भारी उद्योग एवं लोक उद्यम मंत्रालय आठ फीसदी, पर्यटन एवं पोत परिवहन मंत्रालय 14-14 फीसदी, रसायन एवं उर्वरक मंत्रालय 16 फीसदी, श्रम एवं रोजगार मंत्रालय 23 फीसदी, लघु, सूक्ष्म एवं मध्यम उद्यम मंत्रालय 24 फीसदी, पंचायती राज मंत्रालय 28 फीसदी और ऊर्जा मंत्रालय मात्र 33 फीसदी ही खर्च कर पाए हैं। जाहिर है, अगर यही स्थिति रही, तो बिना खर्च हुआ पैसा वित्त मंत्रालय के पास लौट जाएगा।

इससे वित्त मंत्री अरुण जेटली तो खुश होंगे, क्योंकि राजस्व घाटा कम होगा और अपने अगले बजट भाषण में वह गर्व से कह सकेंगे कि हमने राजस्व घाटा कम करके दिखा दिया। राजस्व घाटा कम होना चाहिए, लेकिन उसे कम करने का यह तरीका ठीक नहीं है।

इसी तरह स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय में आवंटित बजट पूरी तरह खर्च नहीं हो पाने के कारण उसके बजट में करीब 20 फीसदी कटौती की बात हो रही है। लेकिन हमारे स्वास्थ्य मंत्री बता रहे हैं कि स्वास्थ्य बजट में छह हजार रुपये की कटौती से सरकार के स्वास्थ्य कार्यक्रमों पर कोई फर्क नहीं पड़ेगा। गौरतलब है कि हमारे देश में स्वास्थ्य पर जितना पैसा खर्च करना चाहिए, उतना खर्च नहीं किया जाता। हमारे यहां स्वास्थ्य पर खर्च सकल घरेलू उत्पाद का महज करीब एक फीसदी है। ऐसे में सवाल उठता है कि बजट में कटौती का स्वास्थ्य क्षेत्र पर प्रभाव कैसे नहीं पड़ेगा।

हमारे देश के सरकारी अस्पतालों की हालत किसी से छिपी नहीं है। लोगों को स्वास्थ्य सुविधाएं नहीं मिलतीं, अस्पतालों में बुनियादी ढांचे का अभाव है, प्रशासनिक व्यवस्था ठीक नहीं है, मरीजों को बाजार से दवाइयां खरीदने और जांच कराने के लिए कहा जाता है। इसके अलावा भ्रष्टाचार का बोलबाला है। दक्षिण भारत के मात्र कुछ राज्य हैं, जहां सरकारी अस्पतालों की स्थिति अपेक्षाकृत ठीक है। स्वास्थ्य क्षेत्र में पैसा खर्च भी होता है, तो वह किस तरह होता है, इसे हम छत्तीसगढ़ की त्रासदी से समझ सकते हैं, जहां नसबंदी शिविर में लापरवाही के कारण कई महिलाओं की जान चली गई।

हमारे स्वास्थ्य मंत्री बजट खर्च न होने का ठीकरा भी राज्यों पर फोड़ते हैं। यह तो गेंद दूसरों के पाले में फेंककर अपना पल्ला झाड़ने वाली बात हुई। अगर आप मंत्रालय के मुखिया हैं, और आपके मंत्रालय का बजट खर्च नहीं हो पा रहा है या कम खर्च होता है, तो इस निष्क्रियता को दूर करने की जिम्मेदारी किसकी बनती है​? इसका मतलब साफ है कि कहीं न कहीं गवर्नेंस की कमी है। स्वास्थ्य मंत्री को तो इस बात पर दुखी होना चाहिए था कि वित्त मंत्रालय उनके विभाग के बजट की कटौती कर रहा है, लेकिन उनके बयान से कहीं दुख नहीं झलकता, बल्कि वह इससे सहमति जताते प्रतीत होते हैं।

हमारे देश में बजट खर्च न होने की कहानी नई नहीं हैै। यह दशकों पुरानी है। बजट में कटौती पहले भी होती रही है। यह बहुत पुराना रोग है, जिसे दूर करने की जरूरत है। शासन की इसी ढिलाई में बदलाव के लिए तो लोगों ने इस सरकार को भारी बहुमत से जिताया, लेकिन यह सरकार भी अगर राज्यों पर आरोप मढ़कर अपना पल्ला झाड़ लेगी, तो यह दुखद ही होगा।

अब ऐसी खबरें भी हैं कि सरकार अनाजों के बफर स्टॉक को भी सीमित करने के बारे में सोच रही है। यदि ऐसा होता है, तो यह खाद्य सुरक्षा के लिए खतरनाक होगा। इससे खाद्य सुरक्षा कानून को लागू करने में मुश्किलें आएंगी। पता नहीं, कौन लोग हैं, जो सरकार को ऐसा करने की सलाह दे रहे हैं! यह इस सरकार का सौभाग्य है कि अंतरराष्ट्रीय बाजार में कच्चे तेल के मूल्य में भारी कमी हुई है। इसके चलते देश में पेट्रोलियम पदार्थों की कीमतों में कमी आई है और हमारे आयात बिल घटे हैं। लेकिन इसमें सरकार का कोई योगदान नहीं है, फिर भी भाजपा अध्यक्ष अमित शाह ढिंढोरा पीटते हैं कि मोदी सरकार ने पेट्रोल की कीमतों में इतनी बार कमी की।

जहां तक पिछली यूपीए सरकार और इस सरकार के कामकाज की बात है, तो कोई खास अंतर नजर नहीं आता। बजट खर्च न हो पाने और उद्योग जगत को खुश करने की कोशिश करने का पुराना ढर्रा अब भी कायम है। हां, इस सरकार में नारेबाजी खूब हुई है, पुरानी नीतियों एवं संस्थानों को नया नाम दिया गया है। लेकिन यह वह बदलाव नहीं, जिसकी लोगों को अपेक्षा थी।

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How legal harassment by corporates is shackling reportage and undermining democracy in India