अब मोदी-जेटली को कांग्रेस से ये सीखना होगा

यह तो तय है कि बिहार विधानसभा चुनाव का परिणाम शेयर बाज़ार में निवेशकों के लिए निराशा लेकर आया है. नरेंद्र मोदी और भारतीय जनता पार्टी के समर्थन वाला कॉरपोरट का एक बड़ा हिस्सा इस बात से दुखी होगा कि नीतीश कुमार एक बार फिर से बिहार के मुख्यमंत्री बनेंगे.

भारत में उद्योगपतियों का एक वर्ग बिहार चुनाव समाप्त होने के पहले ही सरकार की आलोचना करने लगा था. इसमें इंफ़ोसिस के एनआर नारायणमूर्ति, बायकॉन की किरण मजूमदार शॉ और राहुल बजाज जैसे लोग शामिल हैं.

इन लोगों ने सार्वजनिक रूप से सामाजिक सौहार्द बनाए रखने में असफल होने के लिए मोदी सरकार की आलोचना की. उनका मानना है कि इस तरह का माहौल आर्थिक विकास का दुश्मन है.

भारत के पूंजीपतियों के एक बड़े समूह की इच्छा यही थी कि बिहार विधानसभा चुनावों में एनडीए की जीत हो. ये लोग नीतीश कुमार को हारते हुए इसलिए देखना चाहते थे क्योंकि उन्होंने लालू प्रसाद यादव के साथ समझौता कर लिया. उनका मानना है कि लालू ने बिहार को जंगल-राज बना दिया था.

उद्योगपतियों का यह वर्ग मान रहा था कि फ़रवरी में दिल्ली विधानसभा चुनावों में हार के बावजूद नरेंद्र मोदी ही भारत के सबसे बडे नेता हैं.

वो मान रहे थे कि कांग्रेस-मुक्त भारत का नारा देने वाले मोदी ही सबसे बड़े नेता बने रहेंगे. हालाँकि बिहार में बीजेपी और एनडीए की इस हार के बाद मोदी विरोधी भी इस बात से अचंभित हैं कि इतनी जल्दी मोदी की लोकप्रियता कम कैसे हो गई.

इस हार के बाद प्रधानमंत्री पर बड़ा दबाव होगा कि वो बीजेपी की दक्षिणपंथी छवि पर वापस आएं. अब उन्हें कॉरपोरेट के हित में नीति बनानी होगी, सामाज कल्याण की योजनाएं बनानी होंगी, लोगों के लिए बिजली-पानी और सड़क की सुविधा पर ध्यान देना होगा.

इसके अलावा शिक्षा और स्वास्थ्य-सेवा जैसे क्षेत्रों में भी काम करना होगा. अब उन्हें सब्सिडी घटाने और सामाजिक योजनाओं में केन्द्र की हिस्सेदारी को कम करने से पहले दो बार सोचना होगा.

केन्द्र और राज्य के बीच राजकोषीय संतुलन के नाम पर कोई भी कदम उठाने से पहले उन्हें गंभीरता से विचार करना होगा.

मोदी और वित्त मंत्री अरुण जेटली को अंदाज़ा है कि 2013 के भूमि अधिग्रहण क़ानून में उद्योगपतियों के हित में बदलाव करना सरकार के लिए मुश्किल रहा है. उन्हें डर था कि किसान और ग़रीब विरोधी होने का लेबल कहीं उनके साथ चिपक न जाए.

अगर बेहतर रणनीति नहीं बनाई तो सरकार के लिए जीएसटी बिल पास कराना भी मुश्किल होगा. यह एक ऐसा कानून है जो देश के बिखरे बाज़ार को एक करेगा और अप्रत्यक्ष कर में सुधार करेगा. इस कानून को सरकार की एक और बड़ी आर्थिक नीति के रूप में देखा जाता है.
Image copyright Reuters

महंगाई दर कम होने के बाद भी दाल की क़ीमत एक बड़ा मुद्दा है. सरकार को खाद्य सामग्री की बढ़ती क़ीमत को रोकने के लिए भी काम करना पड़ेगा.

मोदी, जेटली और उनके कॉरपोरेट समर्थकों को अब यह समझना होगा कि आर्थिक सुधार के नाम पर बजट घाटे को कम करने, पब्लिक सेक्टर की कंपनियों के शेयर बेचने, व्यापार के लिए अच्छा माहौल तैयार करने और देश की जीडीपी को बढ़ाना जैसे मुद्दों की बजाय, अब सरकार को लोगों को रोज़गार देने पर ज़्यादा ध्यान देना होगा.

यह तो सभी जानते हैं कि प्रधानमंत्री रैलियों में लाखों और करोड़ों का ऐलान कर देते हैं जैसा कि उन्होंने बिहार और हाल ही में कश्मीर में किया.

गुजरात के मुख्यमंत्री रहते हुए भी वो कुछ ऐसा ही करते थे. एमओयू पर हस्ताक्षर करते ही वो गुजरात में बड़े-बड़े निवेश होने का दावा करते थे. जबकि सच्चाई यही है कि ऐसे जितने भी समझौतों पर हस्ताक्षर हुए उनमें से ज़्यादातर काग़ज़ की रद्दी के अलावा कुछ भी नहीं है.

हर किसी को हर समय मूर्ख बनाना आसान नहीं है. बिहार के लोगों ने मोदी को दिखा दिया है कि बड़े निवेश के वादे काफ़ी नहीं हैं.

जब तक लोगों को साफ़-साफ यह नहीं बताया जाए कि रोज़गार के अवसर कब और कहां बन रहे हैं, तब तक युवाओं के लिए अच्छे दिन नहीं आने वाले हैं.

प्रधानमंत्री को मनरेगा जैसी योजनाओं का मज़ाक उड़ाना भी बंद करना होगा जैसा कि उन्होंने 4 मार्च को लोकसभा में किया था.

प्रधानमंत्री ने मनरेगा को यूपीए सरकार की विफ़लताओं का जीता जागता स्मारक बताया था. उन्होंने कहा था कि आज़ादी के 60 साल के बाद भी कांग्रेस को लोगों को गड्ढ़ा खोदने के लिए भेजना पड़ा.

बीजेपी और कांग्रेस की आर्थिक नीति हमेशा एक जैसी रही है, जबकि जेटली और चिदंबरम के बीच थोड़ा अंतर है.

हालांकि जेटली इस बात को कभी नहीं मानेंगे, लेकिन बिहार विधानसभा चुनावों में हार के बाद उन्हें अपनी आर्थिक नीति कांग्रेस की नीतियों के और क़रीब लानी होगी.

Featured Book: As Author
Media Ethics
Truth, Fairness and Objectivity
 
Documentary: Featured
Featured Book: As Publisher
The Russian Revolution
And Storms Across A Century (1917-2017)