क्या 1930 की महामंदी के बाद दुनिया एक और महामंदी की ओर बढ़ रही है? क्या हम यह मान लें कि वर्ष 2008 की मंदी इस महामंदी का शुरुआती दौर भर थी? दुनिया ग्रीस त्रासदी पर टकटकी लगाए हुए है। भारतीय रिजर्व बैंक के गवर्नर रघुराम राजन कहते हैं कि 1930 जैसी महामंदी के हालात फिर से निर्मित हो सकते हैं। अलबत्ता इसके एक दिन बाद ही आरबीआई द्वारा सफाई दी जाती है कि गवर्नर का आशय यह नहीं था कि हाल-फिलहाल दुनिया पर किसी तरह की महामंदी का खतरा मंडरा रहा है। आरबीआई ने मीडिया पर राजन के बयान को संदर्भ से काटकर प्रस्तुत करने का आरोप लगाते हुए कहा कि वास्तव में गवर्नर का आशय यह था कि दुनिया के प्रमुख केंद्रीय बैंकों द्वारा 'बेगर दाय नेबर" की जिस नीति का पालन किया जा रहा है, यह वही नीति है, जो 1930 के दशक में अपनाई जा रही थी। 'बेगर दाय नेबर" नीति वह होती है, जिसमें कोई देश अपने पड़ोसी देशों के हितों को क्षति पहुंचाते हुए अपनी समस्याओं को सुलझाने की कोशिश करता है।
यह पहली बार नहीं है, जब राजन ने इस तरह की बात कही हो। वे लगातार यह कहते आ रहे हैं कि अनेक देशों के केंद्रीय बैंकों की प्रतिस्पर्धात्मक मौद्रिक नीति में ढील देने की प्रवृत्ति अंतरराष्ट्रीय अर्थव्यवस्था के स्थायित्व को ठेस पहुंचा सकती है। 26 जून को लंदन बिजनेस स्कूल द्वारा आयोजित एक कार्यक्रम में बोलते हुए राजन ने दुनियाभर के केंद्रीय बैंकों के प्रमुखों को आगाह भी किया था कि वे अपने 'खेल के नियमों" को ठीक तरह से परिभाषित करें। उन्होंने कहा कि अहम सवाल यह है कि क्या हम विकास के लिए अनुकूल परिस्थितियां नहीं होने के बावजूद विकास को उत्पन्न् करने का प्रयास कर रहे हैं, या हम विकास उत्पन्न् करने के बजाय केवल उसे एक-दूसरे पर ठेल रहे हैं? अतीत के अनुभव तो यही बताते हैं कि जब प्रतिस्पर्धात्मक अवमूल्यन की नीति अपनाई गई तो दुनिया को महामंदी का सामना करना पड़ा।
रघुराम राजन की हिदायतें और भविष्योक्तियां अतीत में भी सही साबित होती रही हैं। यही कारण है कि वे जब कुछ कहते हैं, तो उसे ध्यान से सुना जाता है। वर्ष 2005 में अमेरिका के जैक्सन होल में आयोजित एक कांफ्रेंस में रघुराम राजन ने अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष (आईएमएफ) के चीफ इकोनॉमिस्ट के रूप में एक प्रजेंटेशन दिया था। वहां अमेरिका के केंद्रीय बैंक फेडरल रिजर्व के तत्कालीन चेयरमैन एलेन ग्रीनस्पैन भी मौजूद थे। राजन द्वारा पढ़े गए पेपर का शीर्षक था : 'क्या वित्तीय प्रगति के कारण दुनिया और जोखिम भरी जगह हो गई है?" और फिर खुद ही इसका जवाब देते हुए उन्होंने कहा : 'हां।" राजन ने तब जोर देते हुए कहा था कि 'क्रेडिट डिफॉल्ट स्वैप्स" जैसे जटिल वित्तीय उपाय रचने और फिर उनमें भारी निवेश करने के बाद दुनिया का बैंकिंग सिस्टम अत्यंत खतरनाक हो गया है। राजन ने कहा था, अंतरबैंकीय बाजार जिस दिन ठप्प हो जाएगा, दुनिया एक बहुत बड़ी मुसीबत में फंस जाएगी।
निश्चित ही उस कांफ्रेंस में राजन का स्वर सबसे अहलदा था। अन्य वक्ताओं का मानना था कि राजन की आशंकाएं निर्मूल हैं और ग्रीनस्पैन अमेरिका के इतिहास के सबसे बेहतरीन सेंट्रल बैंकर हैं। बाद में साल 2010 में प्रिंसटन यूनिवर्सिटी प्रेस से प्रकाशित अपनी किताब 'फॉल्ट लाइन्स : हाऊ हिडन फ्रेक्चर्स स्टिल थ्रेटन द वर्ल्ड इकोनॉमी" में राजन ने लिखा कि 'अगर मैं कहूं कि मुझे लगा मैं भूखे शेरों के बीच चला गया था तो मेरा यह कथन अतिशयोक्तिपूर्ण नहीं होगा।" किताब में उन्होंने लिखा कि 'वर्ष 2005 में भी आगामी आर्थिक संकट का पूर्वानुमान लगाने के लिए किसी विशेष बुद्धिमत्ता की आवश्यकता नहीं थी। मैंने केवल इतना ही किया कि बिंदुओं को जोड़कर देखा।" 2005 में राजन से असहमति जताने वाले लोग महज दो साल बाद ही इस बात के लिए बढ़-चढ़कर उनकी सराहना कर रहे थे कि उनका पूर्वानुमान बिलकुल सटीक साबित हुआ। राजन ने पहले ही चेता दिया था कि लोभी बैंकर, लचर राजनेता और नाकारा अफसर वैश्विक अर्थव्यवस्था की लुटिया डुबो सकते हैं। और वैश्विक वित्तीय व्यवस्था बेहद दोषपूर्ण हो गई है, क्योंकि यहां जोखिम लेने की प्रेरणाओं का जोखिम लेने के खतरों से कोई मेल ही नहीं है। पूरी दुनिया की अर्थव्यवस्था कर्ज में डूबे अमेरिकी उपभोक्ताओं पर जरूरत से ज्यादा निर्भर हो गई है और आर्थिक विषमता तेजी से बढ़ती जा रही है।
आर्थिक इतिहासकार बताते हैं कि अक्टूबर 1929 में स्टॉक मार्केट क्रैश होने के बाद शुरू हुई महामंदी 1939 में दूसरा विश्व युद्ध प्रारंभ होने तक कायम रही थी। इस एक दशक के दौरान अंतरराष्ट्रीय कारोबार घटकर आधा रह गया था। 1930 के दशक के पहले चार वर्षों में ही वैश्विक जीडीपी में 15 फीसदी तक की गिरावट आ गई थी। कारखानों पर ताला लग गया था और बेरोजगारी में बेतहाशा बढ़ोतरी हो गई थी। इस तरह के हालात की वापसी की कल्पना ही भयावह लगती है।
अगर निकट भविष्य में वैश्विक संकट गहराता है तो भारत में भी 'अच्छे दिन" आने की उम्मीदें धूमिल हो जाएंगी। अकेले कच्चे तेल की कीमतें बढ़ने से ही पूरी दुनिया में हाहाकार मच सकता है। याद रखिए कि वर्ष 2008 में क्या हुआ था। तब कच्चे तेल की कीमतें 40 डॉलर प्रति बैरल से बढ़कर सीधे 147 डॉलर प्रति बैरल तक पहुंच गई थीं। एक साल पहले तक ये कीमतें 115 डॉलर तक थीं, जो इस साल जनवरी तक घटकर 50 डॉलर तक पहुंच गईं और फिलवक्त 60 डॉलर पर मंडरा रही हैं। 'इकोनॉमिस्ट" जैसे दक्षिणपंथी प्रकाशन ने तेल की कीमतों में नाटकीय गिरावट के लिए सऊदी अरब के शेखों और अमेरिका के शेल ऑइल उत्सर्जकों के बीच चल रही कश्मकश को जिम्मेदार ठहराया था, लेकिन यूक्रेन संकट के बाद पश्चिमी ताकतों द्वारा रूस के राष्ट्रपति व्लादीमीर पुतिन के पर कतरने की कोशिशें भी इसके लिए जिम्मेदार थीं।
लेकिन ये तमाम गणित पलभर में उलट सकते हैं, खासतौर पर ग्रीस में हो रही घटनाओं के बाद यूरोपीय संघ में दरारें उभरने की स्थिति में। मंगलवार को कर्ज चुकाने में ग्रीस की असमर्थता का दो टूक हवाला देने वाले वहां के तेजतर्रार वित्त मंत्री यानिस वारूसफाकिस के उलट आरबीआई गवर्नर राजन ठंडे दिमाग से काम करने वाले व्यक्ति माने जाते हैं। वे मुक्त उद्यम के पूंजीतंत्र में विश्वास रखने वाले व्यक्ति हैं। पूंजीवाद के गढ़ शिकागो विश्वविद्यालय में उन्होंने शिक्षा पाई है, जहां मिल्टन फ्रीडमैन जैसे व्यक्ति ने तीन दशक तक अध्यापन किया था। लुईजी जिंगालेस के साथ मिलकर राजन द्वारा लिखी गई किताब का यह शीर्षक ही काफी हद तक हकीकत बयां करता है : 'पूंजीवादियों से पूंजीवाद की रक्षा करो!"
एक तरफ यह मानने वाले लोग हैं कि मौजूदा वैश्विक संकट अंतरराष्ट्रीय वित्तीय प्रणालियों को लील रहा है, वहीं राजन का मानना है कि इन प्रणालियों के भीतर ही बुनियादी गड़बड़ है। ऐसे में हमें क्या उनकी चेतावनियों पर गौर करना चाहिए या उन्हें गैरमहत्वपूर्ण मानकर निरस्त कर देना चाहिए? इसका जवाब हमें हमारी उम्मीद से पहले ही मिल जाएगा।