किसान आंदोलन के 100 दिन हो गए हैं लेकिन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी उन तीन विवादित कृषि क़ानूनों को वापस लेने के लिए तैयार नहीं दिखते हैं। ऐसा लगता है कि दोनों पक्षों ने अपना रुख कड़ा कर लिया है। क्या आपको लगता है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अपने अब तक के तकरीबन सात साल के कार्यकाल की सबसे बड़ी चुनौती का सामना कर रहे हैं?
मोदी और उनके सहयोगी यह दावा करते हैं कि ये क़ानून किसानों की बेहतरी के लिए हैं। किसानों को या यों कहें कि किसानों के एक बड़े वर्ग को यह लगता है कि यह एक जहरीला उपहार है। मेरे समझ में यह नहीं आता कि अगर इतनी बड़ी संख्या में किसान इन क़ानूनों को खारिज कर रहे हैं तो फिर इसे पारित करने को लेकर सरकार जिद पर क्यों अड़ गई है। अगर मैं कोई उपहार आपको दे रहा हूं और आप उसे नहीं लेना चाह रहे हैं तो मुझे बुरा जरूर लगेगा लेकिन मैं आपको इसे स्वीकार करने के लिए मजबूर नहीं करुंगा। भाजपा शासित प्रदेशों में भी बड़ी संख्या में किसान रहते हैं। सरकार पहले इन क़ानूनों को इन राज्यों में लागू करे और तीन साल में इसे इस तरह से लागू करे कि दूसरे राज्यों के किसानों को भी लगे कि यह क़ानून उनके यहां भी लागू होना चाहिए। लेकिन ऐसा नहीं किया जा रहा है। मुझे लगता है यह सरकार की हठधर्मिता है। मुझे लगता है कि अगर इन्हें भाजपा शासित राज्यों में लागू किया गया तो वहां के किसान इसका समुचित जवाब देंगे।
क्या ये सिर्फ हठधर्मिता है या उससे कहीं आगे की कोई बात है। क्योंकि जब कोरोना महामारी अपने चरम पर थी तो उस वक्त इससे संबंधित अध्यादेश लाए गए और बाद में इसे संसद में पारित कराया गया। राज्यसभा के विपक्षी सांसदों ने यह दावा किया कि उन्हें इस विधेयक पर बोलने के लिए उचित अवसर नहीं दिए गए। सरकार और किसानों के बीच 11 दौर की बात हुई है लेकिन अब तक कोई हल नहीं निकला। क्या यह प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के स्तर पर हठधर्मिता से आगे कुछ है?
हो सकता है। लेकिन मैं आपको ये कहूंगा कि अगर कोई मकसद है तो वह है कि कृषि को कॉरपोरेट बनाने का। एक वक्त पर कांग्रेस ने भी इसका समर्थन किया था। ये लोग मानते हैं कि किसान अशिक्षित या अर्द्धशिक्षित हैं। ये सोच ठीक नहीं है कि किसान सिर्फ खेतों का स्वामित्व रखने वाले कॉरपोरेट घरानों के औद्योगिक मजदूर हो सकते हैं। कॉरपोरेट ये तय करें कि कौन सी फसल उगानी है और कौन सी नहीं। किसान इस कहानी को समझ गए हैं और इसका विरोध कर रहे हैं। ये हम लोगों के लिए एक सबक है कि किसानों के पास अपना दिमाग है। दुनिया भर में रूस, चीन और भारत के किसानों ने यह सबक देने का काम किया है। रूस और चीन के किसानों की क्या हालत है, यह हम सब जानते हैं। अब भारत के किसान बचे हैं और वे प्रतिरोध कर रहे हैं।
आपको क्या लगता है कि किसान आंदोलन धीरे-धीरे कमजोर पड़कर खत्म हो जाएगा या फिर दोनों पक्षों के बीच बातचीत से कोई हल निकलेगा?
मुझे इस बात में संदेह है कि किसानों का असंतोष कभी खत्म होगा। जब तक किसान मौजूदा स्थिति में देश के किसी भी हिस्से में बचे रहेंगे, तब तक ये चलता रहेगा। क्योंकि किसान सरकार की कोशिशों को समझ गए हैं कि उन्हें कॉरपोरेट का मजदूर बनाने की कोशिश हो रही है। किसान सरकार के लिए सबसे बड़ी चुनौती पेश कर रहे हैं। जापान में कॉरपोरेट कृषि बहुत तेजी से बढ़ी लेकिन यह सकारात्मक ही नहीं रहा। किसानों की खुदकुशी भारत के उच्च स्तर तक जापान में भी बढ़ी। अगर आप शाहीन बाग़ में हुए विरोध-प्रदर्शन को देखें तो पता चलेगा कि उस प्रदर्शन और किसानों के प्रदर्शन में काफी समानताएं हैं। मुझे लगता है कि विरोध का यह नया तरीका गांधी और जयप्रकाश नारायण के विरोध-प्रदर्शन की याद दिलाने वाला है। इस आंदोलन के बारे में आप नहीं कह सकते कि कोई एक केंद्रीय नेतृत्व है जो एक जगह बैठकर पूरे प्रदर्शन को नियंत्रित कर रहा है।
इसका मतलब आप यह नहीं मानते कि यह आंदोलन पंजाब, हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश के अपेक्षाकृत अमीर किसानों तक सीमित है बल्कि यह पूरे देश में फैला हुआ है?
बिल्कुल, इस तरह का आंदोलन बढ़ेगा। भारत जैसा विविध देश एक जैसा बनाने वाली बातों का विरोध करेगा ही करेगा। चाहे वह एक भाषा या विचारधारा का सवाल हो या फिर सरकार की हां में हां मिलाने की बात हो। मीडिया में भी एक ही तरह की बात चलती है।
आपने 1992 में नरेंद्र मोदी का एक साक्षात्कार किया था, जब से सिर्फ राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रचारक होते थे। उस मुलाकात के बाद आपने जो लिखा उसमें आपने कहा कि आपको वे एक फासीवाद के लक्षण वाले व्यक्ति दिखते हैं। तब से लेकर अब तक के नरेंद्र मोदी के व्यक्तित्व के विकास को आप कैसे देखते हैं?
भारत के कॉरपोरेट घरानों को लगा कि अगर वे राजनीति के दक्षिणपंथी खेमे में रहेंगे तो अर्थव्यवस्था को और खोला जाएगा और उन्हें लगा कि नरेंद्र मोदी इस काम को एक अंजाम तक पहुंचाएंगे। वे कथित ‘एशियन टाइगर्स’ की सफलता से मुग्ध थे। दक्षिण कोरिया से लेकर ताइवान, थाइलैंड, मलेशिया और सिंगापुर जैसे देशों ने अपनी अर्थव्यवस्था को सफल बनाया था। लेकिन ऐसा करने में वे अधिनायकवादी हो गईं।
अंतरराष्ट्रीय मीडिया का रुख नरेंद्र मोदी को लेकर आलोचनात्मक है लेकिन क्या भारत के प्रधानमंत्री इसकी परवाह करते हैं?
भारतीय लोकतंत्र अराजक तत्वों के हाथों में है। ये लोग वंचित निम्न मध्य वर्ग और हाशिये के वर्गों से आए हैं। इनका समावेशन लोकतंत्र के लिए अच्छा है। लेकिन सत्ता को अपने पास बनाए रखने के लिए इनकी व्यग्रता संपन्न वर्ग के मुकाबले अधिक मजबूत है। संपन्न वर्ग इतना छोटा है कि वह इन वर्गों के बिना शासन नहीं कर सकता है। इसलिए एक तरह का प्रोपेगैंडा रणनीति चलाई जा रही है। इसी तरह से दूसरे एशियाई देश एक-एक करके गैरलोकतांत्रिक होते चले गए। एक पुस्तक है ‘हाउ डेमोक्रेसिज डाई’, इसमें इस बात का उल्लेख किया गया है कि कैसे लैटिन अमेरिकी देशों में निरंकुश शासन बढ़ा। यह भारत के लिए नहीं टालने वाली नियति है कि यह आखिरी एशियाई अर्थव्यवस्था है जो एशियन टाइगर बनने की कोशिश में है।
आप कहना चाह रहे हैं कि भारत को अपने लोकतांत्रिक मूल्यों को बचाते हुए मजबूत अर्थव्यवस्था के रूप में विकसित करने की कोशिश करनी चाहिए?
जी बिल्कुल, इसमें हो सकता है कि थोड़ा वक्त अधिक लग जाता लेकिन इससे कोई खास फर्क नहीं पड़ता।
आपने हिंदू धर्म और हिंदुत्व को अलग करके देखा है। इस फर्क को क्या आप भी मानते हैं? क्या आपको लगता है कि देश में एक दक्षिणपंथी बहुलतावादी हिंदुत्व ने अपनी जड़ें मजबूत कर ली हैं और यह लंबे समय तक रहने वाला है?
मुझे लगता है कि इस भ्रम को बनाने में एक-दो पीढ़ी लग सकती है। हिंदू धर्म ने कई चुनौतियों का सामना पहले भी किया है और खुद को बचाए रखा है। राष्ट्र, राष्ट्र राज्य, राष्ट्रीयता और राष्ट्रवाद का भारतीय अनुवाद हिंदुत्व है। इसमें ऐसा नहीं हो सकता कि आप एक को चुनें और अन्य तीन को छोड़ दें। ये चारों अवधारणाएं एक साथ चलती हैं। ये राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के विचारों से नहीं आया है बल्कि सावरकर के लेखन से आया है। सावरकर ने हिंदू धर्म और हिंदुत्व में स्पष्ट अंतर किया है। हिंदुत्व को एक सांस्कृतिक अवधारणा माना है और इसे एक अलग तरह का जातीयता माना है। इन लोगों ने हिंदू को राष्ट्रवाद के साथ मिलाने की कोशिश की। इस रणनीति को बहुत ही चतुराई से अपनाया गया और इसका क्रियान्वयन किया गया। बहुत रणनीतिक ढंग से बंटवारे के बाद यह बात फैलाई गई कि उस वक्त के 82 फीसदी से अधिक लोग जो खुद को हिंदू मानते थे, वे अल्पसंख्यक के तौर पर बर्ताव कर रहे थे और अपने आंतरिक दुश्मनों से निपट रहे थे। वे लगातार सहमे हुए थे। ये इसका सबसे बढ़िया उदाहरण है कि किस ढंग से बहुसंख्यकों का अल्पसंख्यकों के खिलाफ ध्रुविकरण किया गया। जर्मनी और इटली जैसे देश भी लोकतांत्रिक ढंग से आए थे और वहां भी इस तरह की स्थितियां बनीं। भारत में मुसोलिनी का मॉडल अपनाया गया। क्योंकि यह भारतीय परिस्थितियों के ज्यादा अनुकूल है। इसमें स्थानीय स्तर पर धमकी देने वालों और राष्ट्रीय स्तर पर धमकी देने वालों के जरिए शासन चलाया जा सकता है।