बजट 2024-25: मोदी 3.0 ने अब रोज़गार सृजन और आर्थिक सुधारों को प्राथमिकता क्यों दी?

लोकसभा चुनाव के नतीजों से परेशान नरेंद्र मोदी सरकार के तीसरे कार्यकाल के पहले आम बजट में यह माना है कि देश के सामने सबसे महत्वपूर्ण आर्थिक मुद्दा रोज़गार का है।

भले ही सरकार ने संदिग्ध आंकड़ों का हवाला देकर यह दावा किया हो कि रोज़गार सृजन में सरकार का रिकॉर्ड इतना भी बुरा नहीं रहा है लेकिन आरोप गाए जा रहे हैं कि वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने शीर्ष कंपनियों में इंटर्नशिप कार्यक्रम, रोज़गार से जुड़े प्रोत्साहन कार्यक्रम, निवेश को बढ़ावा देने के लिए "एंजल टैक्स" को ख़त्म करने और महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोज़गार गारंटी अधिनियम (मनरेगा) को लागू करने के लिए बजट आवंटन में कटौती नहीं करने जैसी योजनाओं की घोषणा करते हुए सबसे बड़ी विपक्षी पार्टी कांग्रेस के चुनाव-पूर्व घोषणापत्र से कुछ बातें चुरा ली हैं।

6 लाख रुपये से ज़्यादा और 7 लाख रुपये से कम आय वालों के लिए आयकर स्लैब में बदलाव करके मध्यम वर्ग को मामूली छूट दी गई है (कर की दर 10 प्रतिशत से घटकर 5 प्रतिशत कर दी गई है)। 9 लाख रुपये से अधिक लेकिन 10 लाख रुपये से कम आय वालों के लिए कर की दर 15 प्रतिशत से घटाकर 10 प्रतिशत कर दी गई है।

वित्त मंत्री सीतारमण के मुताबिक़, उपरोक्त या किसी दूसरे उच्च टैक्स ब्रैकेट में वेतन पाने वाले कर्मचारी आयकर के तौर पर 17,500 रुपये बचाएंगे। हालांकि, प्रोपर्टी मालिक प्रोपर्टी की क़ीमतों के सूचकांक को हटाने और दीर्घकालिक पूंजीगत लाभ पर कर की दर को 20 प्रतिशत से घटाकर 12.5 प्रतिशत करने से खुश नहीं होंगे।

जैसा कि उम्मीद था, मोदी (माफ कीजिए, राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन) सरकार द्वारा बिहार और आंध्र प्रदेश की राज्य सरकारों के लिए घोषणाएं की गईं। दिलचस्प बात यह है कि महाराष्ट्र, हरियाणा और झारखंड के लिए इसमें कुछ नहीं था जबकि इन तीनों राज्यों में इस साल के आख़िर में विधानसभा चुनाव होने हैं।

सोमवार को जारी आर्थिक सर्वेक्षण में शेयर बाजारों में “ओवर कॉन्फिडेंस” को लेकर चेतावनी जारी किए जाने के बाद बजट में कई प्रस्तावों से शेयर सूचकांकों में गिरावट देखी गई। इनमें अल्पकालिक पूंजीगत लाभ (15 प्रतिशत से 20 प्रतिशत), दीर्घकालिक पूंजीगत लाभ (10 प्रतिशत से 12.5 प्रतिशत), प्रतिभूतियों में लेनदेन पर (0.02 प्रतिशत से 1 प्रतिशत), परिसंपत्तियों के पुनर्वर्गीकरण की समय अवधि में बदलाव, वायदा और विकल्प (एफएंडओ) लेनदेन पर टैक्स रेट में बढ़ोतरी करना और शेयरों की पुनर्खरीद से होने वाली आय पर टैक्स लगाना शामिल है। देश के केंद्रीय बैंक भारतीय रिजर्व बैंक के खजाने से लाभांश के रूप में 2.1 लाख करोड़ रुपये के अभूतपूर्व निकासी से सरकार का खजाना बढ़ने के बाद सरकार को राजकोषीय घाटे को नियंत्रित करने के बारे में बहुत ज्यादा चिंता नहीं थी।

केंद्र सरकार की राजस्व आय में 14.5 प्रतिशत की वृद्धि हुई जबकि व्यय में केवल 5.94 प्रतिशत की वृद्धि हुई। राजस्व का इस्तेमाल निवेश के लिए नहीं किया गया है बल्कि राजकोषीय घाटे को देश के सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) के 5.8 प्रतिशत से 4.9 प्रतिशत तक कम करने के लिए किया गया है।

जैसा कि उम्मीद थी, इस बजट में बिहार में 26,000 करोड़ रुपये के कुल परिव्यय वाली बुनियादी ढांचा परियोजनाओं का प्रस्ताव शामिल था। सभी परियोजनाएं भारत के पूरे पूर्वी क्षेत्र के लिए "पूर्वोदय" योजना का हिस्सा हैं। ज़ाहिर है कि रोजगार सृजन सरकार के एजेंडे में सबसे ऊपर था। हालांकि सीतारमण ने मनरेगा का नाम नहीं लिया। उन्होंने साफ तौर पर माना कि यह एक ऐसी योजना थी जिसने ग्रामीण क्षेत्रों में ग़रीबों को राहत पहुंचाई है। यह एक ऐसी योजना है जिसे मोदी ने 2015 में कांग्रेस पार्टी की रोजगार देने में विफलता के उदाहरण के रूप में ख़ारिज कर दिया था।

पिछले वर्षों के बरअक्स, मनरेगा के लिए 2024-25 का बजटीय आवंटन 86,000 करोड़ रुपये था जो वास्तव में पिछले वित्तीय वर्ष 2023-24 में खर्च की गई राशि के बराबर था। संयोग से, आर्थिक सर्वेक्षण में कहा गया है कि मनरेगा पर ख़र्च ग्रामीण संकट का सटीक संकेतक नहीं है, क्योंकि ग्रामीण रोज़गार गारंटी योजना पर ख़र्च करने की राज्य सरकारों की क्षमताएं अलग-अलग हैं तथा विभिन्न राज्यों में न्यूनतम मज़दूरी भी अलग-अलग है। आंध्र प्रदेश को 15,000 करोड़ रुपए मिलेंगे, जिनमें से अधिकांश राशि अमरावती में राज्य की नई राजधानी बनाने के लिए ख़र्च होंगे। इसके अलावा, केंद्र सरकार बिहार और आंध्र प्रदेश की राज्य सरकारों की सहायता करेगी अगर वे विश्व बैंक और अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष से बहुपक्षीय वित्तीय सहायता प्राप्त करना चाहें।

यह देखना अभी बाक़ी है कि ये घोषणाएं एनडीए सरकार के दो सबसे महत्वपूर्ण गठबंधन सहयोगियों यानी बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार और आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री एन चंद्रबाबू नायडू के नेतृत्व वाली राजनीतिक पार्टियों को किस हद तक संतुष्ट कर पाएंगी। आयात होने वाली 50 वस्तुओं पर सीमा शुल्क में कटौती और छह महीने में टैरिफ की समीक्षा करने के वादे को कुछ अर्थशास्त्रियों ने भारतीय उद्योग को सुरक्षा के स्तर को कम करके एक तरह के “सुधार के रास्ते” के रूप में देखा है। खाद्य सब्सिडी पर ख़र्च कम हो गया है क्योंकि सरकार कम गेहूं और धान खरीद रही है जबकि मुफ्त खाद्य योजना के अगले पांच वर्षों तक जारी रहने की उम्मीद है।

सरकार ने देर से ही सही लेकिन यह माना है कि रोज़गार की कमी देश के युवाओं के लिए सबसे बड़ा मुद्दा है। सेंटर फॉर मॉनिटरिंग इंडियन इकोनॉमी (CMIE) के अनुसार, 2022-23 में युवा बेरोज़गारी 45.4 प्रतिशत के रिकॉर्ड उच्च स्तर को छू गई। 2011-12 और 2022-23 के बीच, देश में आधे से ज़्यादा पुरुष और दो तिहाई से ज़्यादा महिलाओं को “स्व-रोज़गार” की श्रेणी में बताया गया था जो कि अच्छी नौकरी न मिलने पर उनके लिए इस तरह का जुमला गढ़ा गया।

नवंबर 2016 की नोटबंदी, जल्दबाजी में लागू किया गया माल व सेवा कर (जिसके नियमों में 2017 से अब तक 900 से ज़्यादा बार संशोधन किया जा चुका है) और महामारी के बाद सख़्त लॉकडाउन के कारण छोटे और कुटीर उद्योग बंद हो गए जिससे लोगों की नौकरियां चली गईं।

सरकार के असंगठित उद्यमों के वार्षिक सर्वेक्षण के मुताबिक़, 2006 से 2021 के बीच 24 लाख छोटी इकाइयां बंद हो गईं जिसके परिणामस्वरूप अनौपचारिक क्षेत्र में काम करने वालों की संख्या में 1.3 करोड़ की कमी आई। सरकार स्पष्ट रूप से RBI के हाल के दावे पर ज़्यादा भरोसा नहीं करती है कि पिछले 3-4 वर्षों में 8 करोड़ नई नौकरियां पैदा हुई हैं, यह एक ऐसा दावा जिस पर विश्वसनीयता की कमी के कारण सवाल उठाए गए हैं। इस बजट में भारत की शीर्ष 500 कंपनियों से एक करोड़ युवाओं को रोज़गार देने को कहा गया है। इसके लिए उन्हें 5,000 रुपये प्रति माह का इंटर्नशिप भत्ता और 6,000 रुपये की एकमुश्त सहायता दी जाएगी जिसका बोझ सरकार उठाएगी। कंपनियां प्रशिक्षण का ख़र्च उठाएंगी और इंटर्नशिप भत्ते का 10 प्रतिशत (या 50 रुपये प्रति माह) कर-मुक्त सीएसआर (कॉर्पोरेट सामाजिक जिम्मेदारी) फंड से दिया जा सकता है। इसके अलावा, रोज़गार से जुड़ी प्रोत्साहन योजनाओं का उद्देश्य अन्य चीजों के अलावा कर्मचारी भविष्य निधि संगठन (ईपीएफओ) में योगदान के माध्यम से 2.1 करोड़ युवाओं को लाभान्वित करना है।

पूर्व वित्त मंत्री पी चिदंबरम द्वारा इस बात पर प्रसन्नता व्यक्त किए जाने पर कांग्रेस ने खुशी ज़ाहिर की है कि सीतारमण ने उसकी पार्टी के घोषणापत्र को पढ़ा है और रोज़गार के अवसर पैदा करने के लिए इसमें दिए गए कुछ सुझावों को लागू किया है। मौजूदा वित्त मंत्री ने घोषणापत्र को एक दस्तावेज़ के रूप में पहले ख़ारिज कर दिया था, जिसमें ऐसी सिफारिशें शामिल थीं जिन्हें फंड की कमी के कारण लागू नहीं किया जा सकता था और जिससे राजकोषीय घाटा बढ़ेगा।

सीतारमण के बजट भाषण में कृषि क्षेत्र पर 1.52 लाख करोड़ रुपये ख़र्च करने की बड़ी-बड़ी घोषणाएं की गई हैं। न्यूनतम समर्थन मूल्य का कोई ज़िक्र नहीं किया गया है। किसानों के संगठनों ने बताया है कि कृषि और उससे जुड़े क्षेत्र का हिस्सा लगातार घट रहा है और वर्तमान में यह कुल बजटीय व्यय का 3.15 प्रतिशत है। दिलचस्प बात यह है कि पहली बार सीतारमण के 58 पेज लंबे बजटीय भाषण (अनुलग्नकों के साथ) में तीन शब्द मुश्किल से ही मौजूद थे। ये शब्द हैं 'रेलवे', 'रक्षा' और 'स्वास्थ्य सेवा'।

अहम बात यह है कि भू-राजनीतिक तनाव बढ़ने के बावजूद रक्षा पर बजटीय परिव्यय को कम किया गया है। सीतारमण के बजट भाषण में स्वास्थ्य सेवा पर भी ज़्यादा कुछ नहीं कहा गया है। पिछले बजटों की तरह यह बजट भी आंकड़ों की बाजीगरी और मनमौजी सोच वाला है। जीडीपी वृद्धि का अनुमान 10.5 प्रतिशत बताया गया है, जबकि वास्तविक जीडीपी 6.5 प्रतिशत से 7 प्रतिशत के बीच बढ़ने का अनुमान है।

यह 3 प्रतिशत की “कोर” मुद्रास्फीति दर मानकर नाममात्र वृद्धि को कम करके किया गया है, जिसमें 9.4 प्रतिशत की उच्च खाद्य मुद्रास्फीति दर शामिल नहीं है। यह वास्तविक जीडीपी वृद्धि को बढ़ा-चढ़ाकर पेश करता है, जैसा कि भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी) द्वारा एक प्रेस विज्ञप्ति में बताया गया है।

रोज़गार सृजन पर बजट का ज़ोर निश्चित रूप से स्वागत योग्य है, हालांकि सरकार को रोज़गार सृजन की तत्काल आवश्यकता का एहसास देर से हुआ है। सरकार अपने तंत्र को व्यवस्थित करके इसकी शुरुआत कर सकती है। कार्मिक एवं प्रशिक्षण विभाग (डीओपीटी) द्वारा उपलब्ध कराए गए आंकड़ों के अनुसार, 2014 से 2022 के बीच केंद्र सरकार के मंत्रालयों और विभागों में नौकरियों के लिए 2.2 करोड़ से अधिक लोगों ने आवेदन किया। इस संख्या में से केवल 7.22 लाख ही रिक्त पदों पर सफलतापूर्वक कार्यरत थे। दूसरे शब्दों में कहें तो, आवेदन देने वाले प्रत्येक 1,000 व्यक्तियों के लिए केवल 3 नौकरियां सृजित की गईं। सिटीबैंक इंडिया की एक रिपोर्ट ने अर्थव्यवस्था के औपचारिक क्षेत्र में रोज़गार सृजन में चुनौतियों को रेखांकित किया और महामारी से पहले के स्तरों की तुलना में औपचारिक क्षेत्र के रोज़गार में गिरावट का उल्लेख किया। इस तथ्य को देखते हुए कि विनिर्माण उद्योग में रोज़गार सृजन सुस्त रहा है और हाल के वर्षों में श्रम बल भागीदारी दर में गिरावट आई है, अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन (ILO) की भारत रोज़गार रिपोर्ट 2024 ने देश के संरचनात्मक परिवर्तन को "अवरुद्ध" बताया है।

मार्च 2020 में लॉकडाउन के कारण पहली बार भारतीय अर्थव्यवस्था का आकार छोटा हो गया और शहरों से गांवों की ओर आंतरिक पलायन हुआ। अर्थव्यवस्था पर इस रिवर्स माइग्रेशन का प्रभाव कई वर्षों तक बना रहा। यह निश्चित नहीं है कि बजट में नए प्रस्तावों से रोज़गार सृजन में उल्लेखनीय वृद्धि होगी या नहीं। रोज़गार सृजन को प्रोत्साहित करना निस्संदेह महत्वपूर्ण है, लेकिन जब तक नए निवेश नहीं किए जाते और घरेलू ख़र्च में वृद्धि नहीं होती (20 साल के निचले स्तर से) तब तक नौकरियां अपने आप नहीं बनेंगी। विकास को पूरी आबादी में समान रूप से फैलाना होगा और यह कुलीन वर्गों तक सीमित नहीं होना चाहिए, ऐसे देश में जहां 140 करोड़ से अधिक की एक तिहाई आबादी 100 रुपये प्रतिदिन से कम पर गुजारा करती है। हमें अभी भी एक लंबा रास्ता तय करना है।

साभार : फ्री प्रेस जर्नल में अंग्रेज़ी में प्रकाशित लेख का हिंदी में अनुवाद।

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