सेबी अध्यक्ष को क्यों इस्तीफ़ा दे देना चाहिए

देश के वित्तीय बाज़ारों के नियामक भारतीय प्रतिभूति और विनिमय बोर्ड यानी सेबी के इतिहास में कभी भी इसके अध्यक्ष की विश्वसनीयता पर इतने सवाल नहीं उठाए गए जितना कि मौजूदा अध्यक्ष पर उठाया जा रहा है। हालांकि माधबी पुरी बुच पहली ऐसी महिला हैं जो सिविल सेवक नहीं हैं और निजी क्षेत्र से सेबी की अध्यक्षता करने वाली पहली व्यक्ति हैं जिन्होंने 10 अगस्त को जारी यूएस-आधारित शॉर्ट-सेलर हिंडनबर्ग रिसर्च की दूसरी रिपोर्ट में लगाए गए आरोपों का तुरंत जवाब दिया था लेकिन उसके बाद वे खामोश हैं।

जबकि सेबी के सैकड़ों कर्मचारियों ने पुरी बुच पर संगठन में कथित रूप से "टॉक्सिक वर्क कल्चर" को बढ़ावा देने को लेकर विरोध किया है। ज़ी मीडिया समूह के प्रमुख सुभाष चंद्रा ने सार्वजनिक रूप से उन पर रिश्वतखोरी और भ्रष्टाचार का आरोप लगाया है। जो पहले ऐसा कभी नहीं हुआ है। यदि वास्तव में ये आरोप निराधार हैं और चंद्रा ने अपने दावों को पुष्ट करने के लिए बहुत कम सबूत दिए हैं तो पुरी बुच को उन पर मानहानि के साथ अन्य गंभीर धाराओं में मुकदमा करने का पूरा अधिकार है। हालांकि, ऐसा अभी होना नामुमकिन है।

भारत के पूंजी बाज़ारों को विनियमित करने के लिए ज़िम्मेदार अर्ध-न्यायिक प्राधिकरण की विश्वसनीयता को कभी इतना नुक़सान नहीं पहुंचा जो अभी हुआ है। सेबी का गठन अप्रैल 1988 में भारत सरकार के एक प्रस्ताव के ज़रिए एक ग़ैर-सांविधिक निकाय के रूप में किया गया था। संसद द्वारा एक अधिनियम पारित करने के बाद जनवरी 1992 में यह एक सांविधिक निकाय बन गया। अधिनियम की प्रस्तावना में सेबी के मूल कार्य को “… प्रतिभूतियों में निवेशकों के हितों की रक्षा करना और प्रतिभूति बाज़ार के विकास को बढ़ावा देना और उसे विनियमित करना और उससे जुड़े या उसके आकस्मिक मामलों के लिए” एक निकाय के रूप में बताया गया है।

उसी साल हर्षद मेहता कांड सामने आया और सेबी के पहले अध्यक्ष स्वर्गीय जी वी रामकृष्ण ने वित्त मंत्रालय में तत्कालीन शीर्ष नौकरशाह मोंटेक सिंह अहलूवालिया से गंभीर शिकायत की कि सरकार ने घोटालेबाज़ों के ख़िलाफ़ कार्रवाई करने के लिए सेबी को पर्याप्त अधिकार नहीं दिए हैं। सेबी को और अधिक सशक्त बनाने के बावजूद नौ साल बाद एक और घोटाला सामने आया जो केतन पारेख द्वारा साजिश रची गई थी।

हालांकि बहुदलीय संयुक्त संसदीय समितियों ने इन घोटालों की गहन जांच की और भारी-भरकम रिपोर्टें तैयार कीं लेकिन नियामक प्राधिकरण के प्रमुख के ख़िलाफ़ हालिया आरोप अभूतपूर्व है। पुरी बुच पर "हितों के टकराव" का आरोप लगाया गया है, उन्होंने बोर्ड के अध्यक्ष बनने से पहले पूर्णकालिक सदस्य के रूप में कार्य करते हुए कई निजी फर्मों से पैसा हासिल किया और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के क़रीबी माने जाने वाले गौतम अडानी के नेतृत्व वाले कॉर्पोरेट समूह से जुड़ी संस्थाओं के ख़िलाफ़ आरोपों की जांच में तेज़ी से कार्रवाई नहीं की।

अगर सेबी का काम यह सुनिश्चित करना है कि देश के शेयर बाज़ारों में सभी हितधारक जटिल नियमों और विनियमों का पालन करने में सतर्क रहें तो नियामक प्राधिकरण का नेतृत्व करने वाली व्यक्ति ख़ुद कैसे आरोपों में फंस सकती है?

सेबी प्रमुख की नियुक्ति कैबिनेट की नियुक्ति समिति द्वारा की जाती है जिसकी अध्यक्षता मोदी करते हैं और इसमें उनके दाहिने हाथ गृह मंत्री अमित शाह भी शामिल हैं।

सरकार और वित्त मंत्रालय के शीर्ष अधिकारियों ने अब तक पुरी बुच से जुड़े विवादों के बारे में चुप्पी साध रखी है। क्या इसका मतलब यह है कि उन्हें उनके सभी वित्तीय लेन-देन के बारे में पता था और उनकी आय के बारे में कुछ भी ग़लत या संदिग्ध नहीं मिला? क्या पुरी बुच ने पहले ही वह सब बता दिया था जो अब पब्लिक डोमेन में है और उन मामलों से ख़ुद को अलग कर लिया जिनमें हितों के टकराव के आरोप लगाए जा सकते हैं।

(सेबी के एक पूर्णकालिक सदस्य ने नाम न बताने की शर्त पर दावा किया है कि उन्हें हिंडनबर्ग रिसर्च की दूसरी रिपोर्ट में बताई गई सारी बातें नहीं पता थीं।)

सेबी अध्यक्ष ने कांग्रेस पार्टी के प्रवक्ता पवन खेड़ा द्वारा सोमवार (2 सितंबर 2024) और मंगलवार को दो सार्वजनिक प्रेस कॉन्फ्रेंस में लगाए गए आरोपों का जवाब नहीं दिया है। न ही सेबी या वित्त मंत्रालय ने इन आरोपों का जवाब दिया है।

आईसीआईसीआई बैंक द्वारा सोमवार को दिए गए जवाब ने मामले को और उलझा दिया है। बैंक ने कहा कि पुरी बुच को "वेतन" नहीं दिया गया, बल्कि "सेवानिवृत्ति लाभ" दिए गए। पर्यवेक्षकों ने आश्चर्य जताया है कि आईसीआईसीआई बैंक की एक समूह कंपनी से सेवानिवृत्त होने से पहले ये लाभ उनके वेतन से कहीं अधिक क्यों थे। भले ही ऐसे प्रश्नों के जवाब मिल जाएं लेकिन सवाल यह है कि क्या उन्होंने अपनी आय का खुलासा किया और सेबी के साथ काम करने के दौरान ये लाभ क्यों मिलते रहे।

यह भी उतना ही हैरान करने वाला है कि भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने आईसीआईसीआई बैंक के पूर्व प्रमुख के वी कामथ को एक समिति का सदस्य क्यों नियुक्त किया, जो इस बात से संबंधित आरोपों की जांच करेगी कि सेबी अडानी समूह से जुड़ी कॉर्पोरेट संस्थाओं के ख़िलाफ़ विभिन्न आरोपों (कम से कम 24) की जांच कैसे कर रही है। क्या इस मामले में हितों का टकराव नहीं था?

कांग्रेस पार्टी ने राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजीत डोभाल के बेटे से जुड़ी एक फर्म से उनके जुड़ाव सहित विभिन्न आधारों पर पुरी बुच के इस्तीफ़े की मांग की है।

सेबी की कार्रवाई और निष्क्रियता को लेकर संदेह जताया गया है। जब छोटे और मध्यम उद्यम जिनका कोई ट्रैक रिकॉर्ड नहीं है, पूंजी बाज़ार से बड़ी रक़म जुटाते हैं, तो लोगों की भौहें तन जाती हैं। लेकिन नियामक की कार्रवाई धीमी और चुनिंदा मानी जाती है।

आश्चर्य की बात नहीं है कि इस बारे में सवाल उठाए जा रहे हैं कि क्या हाल ही में सेबी द्वारा अनिल अंबानी और उनके कॉर्पोरेट समूह से जुड़े व्यक्तियों और संस्थाओं को दी गई कड़ी सजा एक ध्यान भटकाने वाली रणनीति थी।

दिलचस्प बात ये है कि केतन पारेख से जुड़े 2001 के शेयर बाज़ार घोटाले पर जेपीसी रिपोर्ट में सुभाष चंद्रा और गौतम अडानी दोनों के नेतृत्व वाले समूहों में शामिल संस्थाओं पर आरोप लगाने की कोशिश की गई थी।

हालांकि, माधबी पुरी बुच द्वारा अपने पद से इस्तीफ़ा देने से इनकार करा हास्यास्पद नहीं है।

Featured Book: As Author
Sue the Messenger
How legal harassment by corporates is shackling reportage and undermining democracy in India
 
Featured Book: As Publisher
Grand Illusion
The GSPC Disaster and the Gujarat Model
  • Authorship: Subir Ghosh
  • Publisher: Paranjoy
  • 260 pages
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