भारत की दूरसंचार क्रांति का एक नकारात्मक पहलू भी है. मोबाइल संचार के लिए हवा की तरंगों (एयर वेव्स) के आवंटन और कीमत को लेकर एक के बाद एक घोटालों के बाद अब बार-बार कॉल ड्रॉप के रूप में ख़राब सेवा से नए विवाद शुरू हो गए हैं. आज देश के ज़्यादातर शहरी क्षेत्रों में इंसानों से ज़्यादा फ़ोन हैं. 125 करोड़ लोगों के देश में 100 करोड़ सिम कार्ड हैं, 70 करोड़ मोबाइल फ़ोन हैं जिनमें से 25 करोड़ 'स्मार्ट' फ़ोन हैं. दिक्कत फ़ोन में नहीं बल्कि मोबाइल सेवा में है. ऐसा एक से ज़्यादा बार हो रहा है कि यूज़र की
“आई, मी, माईसेल्फ...सब बोरिंग है। अस एंड वी...इन्ट्रस्टिंग है... इंटरनेट है तो फ्रेंडशिप है... फ्रेंडशिप है तो शेयरिंग है... जो मेरा है वो तेरा... जो तेरा है वो मेरा है...” एयरटेल के इस विज्ञापन को आपने टीवी पर जरूर देखा होगा। इस विज्ञापन में इंटरनेट की दुनियां को बहुत ही उदार बताया गया है। इंटरनेट की दुनियां तक तो ऐसा होना अच्छा लगता है लेकिन जब ऐसा सरकारी संपत्ति को लेकर कहा जाने लगे तो आप क्या कहेंगे? दूरसंचार विभाग और भारती एयरटेल के बीच जो कुछ हुआ वह इस विज्ञापन के बोल को सार्थक करता प्रतीत
यह देखना आश्चर्यजनक लगता है कि ऐतिहासिक जनसमर्थन से सत्ता में आई मोदी सरकार कितनी तेजी से अपना आधार गंवाती जा रही है। महज 15 माह पहले मई 2014 में 31.5 प्रतिशत पॉपुलर वोट के साथ यह सरकार सत्ता में आई थी। इसके बावजूद कॉर्पोरेट जगत की कद्दावर हस्तियों, दक्षिणपंथी चिंतकों, स्तंभकारों, बुद्धिजीवियों, जिनमें से कइयों ने मोदी सरकार में भरोसा जताया था और गर्मजोशी से उसका स्वागत किया था, आज उनमें ही जैसे सरकार की कार्यप्रणाली और खुद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की नेतृत्वक्षमता की आलोचना करने की होड़ लगी हुई
यह तो खैर पहले से ही अनुमान लगाया जा रहा था कि संसद का मानसून सत्र न केवल हंगामाखेज रहेगा, बल्कि वह पूरी तरह से 'धुल" भी सकता है। अब जब ऐसा वस्तुत: होता नजर आ रहा है तो यह किसी के लिए भी अप्रत्याशित नहीं है। सवाल यही था कि क्या इसके बाद मोदी सरकार अपनी नीतियों में बुनियादी बदलाव लाने को मजबूर होगी। संसद में विधायी कार्य ठप हो जाने से सरकार के लिए मतदाताओं से किए गए वादों को पूरा करना निरंतर मुश्किल होता जा रहा है और इससे उस पर राजनीतिक दबाव बढ़ता जा रहा है। उसके सामने बिहार में होने जा रहे
“जहां तक यूनान के मौजूदा संकट का सवाल है, इससे जुड़े मजाक की भी अपनी-अपनी विचारधाराएं हैं। एक प्रचलित चुटकुले का पूंजीवादी संस्करण इस प्रकार है। डच होने की पहचान यह है कि एक रेस्तरां में एक टेबल पर साथ में खाना खाए लोग मिलकर बिल का भुगतान करते हैं जबकि ग्रीक होने का मतलब है खाना खा लेने और शराब पी लेने के बाद जब सभी उठते हैं तो पता चलता है कि बिल देने के लिए किसी के पास पैसे नहीं हैं। इसी लतीफे का समाजवादी संस्करण यह है कि जिन लोगों ने खाने का आर्डर दिया है उन्हें पता चलता है कि उनका खाना रेस्
आठ मई, 2015 को भारत के नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक यानी कैग ने संसद में एक रिपोर्ट रखी। इस रिपोर्ट में बताया गया कि दूरसंचार विभाग ने मुकेश अंबानी की कंपनी 'रिलायंस जियो’ को 'ब्रॉड बैंड वायरलेस एक्सेस स्पेक्ट्रम’ के तहत कॉल करने की सुविधा देकर 'अनुचित लाभ’ पहुंचाया है। इस रिपोर्ट के मुताबिक कंपनी को जिस समय इंटरनेट सेवा प्रदाता का लाइसेंस दिया गया था उस समय कॉलिंग की सुविधा नहीं दी गई थी। रिपोर्ट कहती है कि रिलांयस जियो को एक एकीकृत लाइसेंस चुपके से दे दिया गया जिसमें इंटरनेट सेवा प्रदाता होने
क्या 1930 की महामंदी के बाद दुनिया एक और महामंदी की ओर बढ़ रही है? क्या हम यह मान लें कि वर्ष 2008 की मंदी इस महामंदी का शुरुआती दौर भर थी? दुनिया ग्रीस त्रासदी पर टकटकी लगाए हुए है। भारतीय रिजर्व बैंक के गवर्नर रघुराम राजन कहते हैं कि 1930 जैसी महामंदी के हालात फिर से निर्मित हो सकते हैं। अलबत्ता इसके एक दिन बाद ही आरबीआई द्वारा सफाई दी जाती है कि गवर्नर का आशय यह नहीं था कि हाल-फिलहाल दुनिया पर किसी तरह की महामंदी का खतरा मंडरा रहा है। आरबीआई ने मीडिया पर राजन के बयान को संदर्भ से काटकर
मोदी सरकार का भू-अधिग्रहण अध्यादेश 5 अप्रैल को समाप्त हो रहा है और सरकार ने पुन: अध्यादेश लाने का निर्णय किया है। यह एक बहुत बड़ा राजनीतिक जुआ है। चूंकि राजग के पास राज्यसभा में बहुमत नहीं है, इसलिए पूरी संभावना है कि जब यह अध्यादेश विधेयक की शक्ल में वहां जाएगा, तो निरस्त हो जाएगा। ऐसे में सरकार के पास संसद का संयुक्त सत्र बुलाने के सिवा कोई और चारा नहीं रह जाएगा। लेकिन क्या सच में सरकार के पास कोई और विकल्प नहीं है? नहीं, सरकार के पास एक और विकल्प है। और वो यह कि इस विधेयक पर छिड़े विवाद को अपनी
मोदी सरकार का भू-अधिग्रहण अध्यादेश 5 अप्रैल को समाप्त हो रहा है और सरकार ने पुन: अध्यादेश लाने का निर्णय किया है। यह एक बहुत बड़ा राजनीतिक जुआ है। चूंकि राजग के पास राज्यसभा में बहुमत नहीं है, इसलिए पूरी संभावना है कि जब यह अध्यादेश विधेयक की शक्ल में वहां जाएगा, तो निरस्त हो जाएगा। ऐसे में सरकार के पास संसद का संयुक्त सत्र बुलाने के सिवा कोई और चारा नहीं रह जाएगा। लेकिन क्या सच में सरकार के पास कोई और विकल्प नहीं है? नहीं, सरकार के पास एक और विकल्प है। और वो यह कि इस विधेयक पर छिड़े विवाद को अपनी
वित्त मंत्री अरुण जेटली का पहला पूर्ण बजट इस बात का प्रतीक है कि कैसे आशावादिता वास्तविकता पर हावी हो सकती है। दरअसल, उन्होंने अपनी सरकार के आलोचकों को जवाब देने की कोशिश की है। इसके लिए उन्होंने गरीब, मध्य वर्ग, कार्पोरेट क्षेत्र, किसान, छोटे व्यापारी, युवा और बुजुर्ग सभी को कुछ न कुछ देने का वायदा किया है। मगर सबको खुश करने की कवायद के साथ दिक्कत यह है कि अंत में मुमकिन है कि कोई भी उनसे खुश न हो। इस आशावाद की मूल वजह उनकी यह सोच रही कि आने वाले वित्तीय वर्ष में महंगाई दर तकरीबन तीन से 3.5
बहुत आशावादी हो गए मु ख्य आर्थिक सलाहकार अरविंद सुब्रमण्यम के नेतृत्व में बनी टीम द्वारा बनाई गई आर्थिक समीक्षा में आशावाद पेश किया गया है। इसमें बताया गया है कि जीडीपी ग्रोथ से ही सरकार हर आंख से आंसू पोंछ पाएगी। यह भी कहा गया है कि आने वाले वक्त में हम चीन से भी आगे बढ़ जाएंगे। पर हम आर्थिक समीक्षा को पूरा पढ़ें तो इस आशावाद को चुनौती देने वाले कई बिंदू हैं, जिन पर गौर करना चाहिए। इसमें कहा गया है कि भारतीय अर्थव्यवस्था कमजोर थी, जिसमें थोड़ा सुधार हुआ है न कि वह तेजी से बढ़ रही है। कच्चे तेल
गिरफ़्तार लोगों में देश की सबसे बड़ी निजी कंपनी रिलायंस इंडस्ट्रीज़ लिमिटेड के एक कर्मचारी के अलावा दो कथित सलाहकार, एक पत्रकार और एक कनिष्ठ सरकारी कर्मचारी भी शामिल है. आख़िर कौन नहीं जानता कि अफ़सरशाही किसी छननी की तरह चूती है? आम तौर पर यह सब जानते हैं कि छोटी सी रिश्वत के बदले सरकारी दफ़्तरों से सबसे ज़्यादा 'गोपनीय' और 'कीमती' फ़ाइलें भी फ़ोटोकॉपी या स्कैनिंग के लिए उपलब्ध हो सकती हैं. तो फिर इस ताज़ा कारोबारी षडयंत्र में नया क्या है? संदेश पहली और सबसे सीधी वजह यह है कि प्रधानमंत्री
लोकसभा चुनाव में भारी बहुमत के साथ जीत हासिल कर नरेंद्र मोदी सरकार जब सत्ता में आई, तो लोगों को काफी उम्मीदें थीं। नरेंद्र मोदी ने लोगों से प्रभावी शासन का वायदा किया था, लेकिन सात महीने के शासन के बाद भी सरकार के कई मंत्रालयों की कार्यशैली में कोई बदलाव नहीं दिख रहा है। अगर सरकार के मिड ईयर इकोनोमिक एनलिसिस को देखें, तो पता चलता है कि कई महत्वपूर्ण मंत्रालय अपने बजट का काफी हिस्सा खर्च ही नहीं कर पाए हैं। सत्ता में आते ही सरकार ने घोषणा की थी कि गंगा और अन्य नदियों को स्वच्छ बनाया जाएगा। लेकिन
जैसी कि अपेक्षा थी, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की अध्यक्षता में आर्थिक मामलों की कैबिनेट समिति ने देश में सर्वाधिक उपयोग किए जाने वाले पेट्रोलियम उत्पाद डीजल की कीमतों को नियंत्रणमुक्त करने का निर्णय ले लिया। कच्चे तेल की वैश्विक कीमतों में जो अप्रत्याशित गिरावट आई, उससे उत्साहित होकर ही सरकार डीजल की कीमतों में कटौती करने का निर्णय ले सकी है। किंतु डीजल की कीमतों को नियंत्रणमुक्त करने के अपने जोखिम और अनिश्चितताएं हैं। देर-सबेर पेट्रोलियम की अंतरराष्ट्रीय कीमतों में फिर उछाल आना ही है, तब डीजल
विभिन्न केंद्र सरकारों द्वारा वर्ष 1993 से 2010 के दौरान आवंटित की गई 214 कोयला खदानों का आवंटन निरस्त करने के सर्वोच्च अदालत के फैसले का भारतीय अर्थव्यवस्था पर दूरगामी असर पड़ेगा। इससे घरेलू कोयले की आपूर्ति में बाधा आएगी। यदि हम अपने बिजली उत्पादन पर बुरा असर नहीं पड़ने देना चाहते हैं तो हमें कोयले के आयात को बढ़ाना भी पड़ सकता है। फिर भी सुप्रीम कोर्ट का फैसला हमें अवसर प्रदान करता है कि हम देश में कोयला खनन की भ्रष्ट व अपारदर्शी प्रणाली को दुरुस्त कर सकें। यहां यह जरूर कहा जाना चाहिए कि कोयला
भारत के प्रधान न्यायाधीश जस्टिस राजेंद्रमल लोढ़ा ने 25 अगस्त को कोयला खदान घोटाले के संबंध में फैसला सुनाते हुए जिस तरह के कठोर शब्दों का उपयोग किया, उसके बाद अगर वर्ष 1993 के बाद से आवंटित सभी 218 खदानों में से अधिकतर को जल्द ही निरस्त कर दिया जाता है तो किसी को हैरत नहीं होनी चाहिए। इससे भारतीय अर्थव्यवस्था के लिए बेहद महत्वपूर्ण निर्माण क्षेत्र को जरूर कुछ समय के लिए मुश्किलों का सामना करना पड़ सकता है, लेकिन अंतत: इससे राजनेताओं व कारोबार जगत से जुड़े उनके चहेतों को यह सख्त संदेश जरूर जाएगा कि
वित्त मंत्री अरुण जेटली ने मोदी सरकार का जो पहला बजट पेश किया है, उससे एक बार फिर यह साबित हुआ है कि हमारे देश के दोनों प्रमुख दलों-भारतीय जनता पार्टी और कांग्रेस की आर्थिक नीतियों में कोई खास अंतर नहीं है। पी चिदंबरम के बजट से यह बजट बहुत ज्यादा अलग नहीं है। पी चिदंबरम ने जो करने की कोशिश की थी, लेकिन गठबंधन सरकार की मजबूरियों के कारण उसे अंजाम देने में सफल नहीं हो सके, वही करने की बात नए वित्त मंत्री कह रहे हैं। चिदंबरम साहब विनिवेश के जरिये राजस्व जुटाना चाहते थे, अब नए वित्त मंत्री को भी